मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health):- मानसिक स्वास्थ्य शरीर व मन की वह दशा है जिसमें दोनों ही अपना कार्य सामान्य रूप से करते हैं। जब तक मन नियंत्रित रहता है, भूख, प्यास, तथा काम की इच्छा नियंत्रित रहती है तथा व्यक्ति उच्च आदर्शाें की प्राप्ति की ओर प्रयास करता है तब तक वह मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है।

स्वास्थ्य मनुष्य की अमूल्य निधि है। शरीर का स्वस्थ होना न केवल व्यक्ति के लिए बल्कि समाज एवं राष्ट्र के लिए आवश्यक होता है। ‘‘शरीर माध्यम् खलु धर्म साधनम‘‘ अर्थात शरीर के माध्यम से ही जीवन के सभी कार्य सम्पन्न होते है। अतः शरीर स्वस्थ होने पर ही कार्यों को सफलता पूर्वक पूर्ण किया जा सकता है। आयुर्वेद एक समग्र विज्ञान है जो मन-शरीर के संबंध को स्वीकार करता है। स्व में स्थित हो जाना ही स्वास्थ्य है अर्थात अपने स्वरूप को पहचानना या स्वयं में केंद्रित होना। अपने कर्तव्यों का पालन करना तथा मानव मूल्यों को आत्मसात करना स्वस्थ व्यक्ति के लक्षण हैं। आयुर्वेद में कहा गया है- 

समदोषः समाग्निश्च समधातु मलः क्रियाः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इत्याभिधियते।।

अर्थात जिसके दोष, धातु व मल क्रिया सम होने के साथ-साथ आत्मा, इन्द्रिय व मन प्रसन्न है वही स्वस्थ व्यक्ति के अंतर्गत आता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस तथ्य को स्वीकार कर स्वास्थ्य की परिभाषा इस तरह की है-

Health is the physical, Mental, Social and Spiritual well being and not merely the absence of disease or infirmity-

अर्थात स्वास्थ्य केवल रोगों अथवा अपंगुता की अनुपस्थिति ही नहीं है बल्कि एक पूर्ण शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक कल्याण की स्थिति है।

स्वास्थ्य के अंग

विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि स्वास्थ्य के तीन प्रमुख अंग हैं:- 
(1)शारीरिक स्वास्थ्य, (2) मानसिक स्वास्थ्य, (3) सामाजिक स्वास्थ्य तथा योग के अनुसार चैथा अंग है (4) आध्यात्मिक स्वास्थ्य।

शारीरिक स्वास्थ्य

शारीरिक स्वास्थ्य से तात्पर्य शारीरिक क्रियाओं की सामान्यता तथा शारीरिक अंगों की सापेक्ष कार्यात्मकता से है। यदि शरीर के बाह्य तथा आंतरिक अंग सामान्य रूप से कार्य करते रहते हैं तो शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा माना जाता है। मानसिक स्वास्थ्य व्यक्ति की वह मानसिक स्थिति है जो व्यक्तित्व की सम्पूर्ण समन्वित क्रिया को दर्शाती है। सामाजिक स्वास्थ्य वह दशा है जिसमें व्यक्ति सामाजिक रूप से अपने कार्यों का सही सम्पादन करता है, दूसरों का मान सम्मान करता है, परिस्थितियों से उचित समायोजन करता है तथा सद्भावना, प्रेम, सहानुभूति एवं त्याग से ओत-प्रोत होता है। आध्यात्मिक स्वास्थ्य यह अवस्था है जिसमें व्यक्ति जब तक प्रकृति के बनाये नियमों का पालन करता है तभी तक पूर्ण स्वस्थ रहता है।

मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health)

मानसिक स्वास्थ्य शरीर व मन की वह दशा है जिसमें नों ही अपना कार्य सामान्य रूप से करते हैं। जब तक मन नियंत्रित रहता है, भूख, प्यास, तथा काम की इच्छा नियंत्रित रहती है तथा व्यक्ति उच्च आदर्शाें की प्राप्ति की ओर प्रयास करता है तब तक वह मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है। शरीर के विभिन्न तंत्रों के कार्यों का समन्वय तथा अन्तर्सम्बन्ध मस्तिष्क के द्वारा स्थापित किया जाता है। यदि मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार की सूचनाएं एवं संवेदनाएं सही रूप में पहुँचती हैं तथा उनकी व्याख्या सही रूप में होती है तो परिस्थिति के अनुरूप प्रत्युत्तर होते है लेकिन वर्तमान समय में अनेकोनेक समस्याओं तथा जटिलतम् परिस्थितियों के कारण न तो संवेदनाएं तथा सूचनाएं मस्तिष्क में सही रूप में पहुँचती है और न ही उनकी व्याख्या उचित तरह से सम्भव होती है। इस कारण मन-मस्तिष्क में सदैव असमंजस की स्थिति बनी रहती है। यह असमंजस की स्थिति जब बढ़ जाती है तो तनाव उत्पन्न कर देती है। इसी कारण आज व्यक्ति मानसिक तनाव से दिनोदिन ग्रसित होता चला जा रहा है। जिसके कारण वह शारीरिक तथा मानसिक से रोगों से ग्रसित होता जा रहा है।

सम्पूर्ण स्वास्थ्य में मानसिक स्वास्थ्य

मानव की रचना मन तथा शरीर से हुई है। पंचमहाभूत-आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी एवं मन इसके अभिन्न अंग है। इन दोनों में सामान्य अन्तःक्रिया का होना उत्तम स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। मन तथा शरीर एक है जिनका अलग-अलग अध्ययन नहीं किया जा सकता हैं। ये अन्तर्निर्भर होकर ही कार्य करते हैं। शारीरिक प्रतिक्रियायें मानसिक स्थिति को प्रभावित करती है तथा मानसिक प्रतिक्रियायें शरीर के कार्यों को प्रभावित करती हैं तथा जैव रसायनिक परिवर्तन लाती हैं। जनरल स्मूट्स ने अपनी पुस्तक होलिज्म में स्पष्ट किया कि मन विहीन शरीर तथा शरीर विहीन मन का कोई अस्तित्व नहीं है। शरीर मन एक ही है जैसे एक सिक्के के दो पहलू। दोनों को अलग नहीं किया जा सकता है। व्यक्ति के ये दो अभिन्न अंग हैं। जब हम क्रोधित होते हैं या भयभीत होते है तो शारीरिक परिवर्तन होते हैं। इसी प्रकार यदि शरीर में एड्रीनलीन की मात्रा रक्त में बढ़ जाती है तो क्रोध संवेग प्रभावी हो जाता है। रोग की उत्पत्ति व उपचार प्रक्रिया में मनोवैज्ञानिक कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रोग की उत्पत्ति चार स्तरों से होकर गुजरती हैः- (1) मनोवैज्ञानिक स्तर(Psychic stage), (2) मनोशारीरिक स्तर(Psychosomatic stage), (3) शारीरिक स्तर (Somatic stage), (4) अंगीय स्तर (Organic stage)। जब किसी रोग का प्रारम्भ होने को होता है तो सबसे पहले मनोवैज्ञानिक परिवर्तन होते हैं जिसके कारण सांवेगिक विघटन होते हैं। वह झुंझलाने लगता है, नाराज होने लगता है, चिन्तित तथा तनाव ग्रस्त रहता है। यदि काफी समय तक यही स्थिति बनी रहती है तो दूसरे स्तर के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। उसमें उच्च रक्तचाप, श्वास की तीव्र गति, हृदय की तीव्र धड़कन तथा अधिक पसीना आने लगता है। तीसरे स्तर पर शरीर के सभी अंगों विशेष रूप से बाधित अंग के कार्य बढ़ जाते हैं। उदाहरण के लिए थायराइड के कार्य बढ़ते हैं, हृदय के कार्य बढ़ते हैं, फेफड़े के कार्य बढ़ते हैं। लेकिन जिस पर अधिक दबाव पड़ता है वह अधिक उत्तेजित रहता है। अन्तिम स्तर पर रोग किसी एक अंग में स्थायी रूप से प्रकट हो जाता है।इस तथ्य की आधुनिक चिकित्सा अनुसंधानों से भी पुष्टि हो गयी है। वी0 डब्ल्यू रिचर्डसन ने अपनी पुस्तक दि फील्ड आफ डिजीजेज में लिखा है कि मानसिक उद्वेग तथा चिंताओं के कारण त्वचा की एलर्जी हो जाती है। कैंसर, हिस्टिरिया, उच्च रक्त चाप, मधुमेह, दमा, संधिवात आदि के मूल कारणों का स्रोत मानसिक विकार ही हैं। सबसे पहले मानसिक जगत में विकार बढ़ते हैं उसके पश्चात ही कोई शारीरिक रोग होता है।

इसी प्रकार शरीर की थकावट के कारणों की जांच से जो परिणाम निकले हैं उससे पता चलता है कि शारीरिक थकावट का कारण शारीरिक परिश्रम नहीं होता, वरन् घबराहट, चिन्ता, विषम मनः स्थिति, उतावलापन तथा अत्यधिक भावकुता होती है। हीन भावना से भी शरीर टूटता है। थकान से बचने के लिए आवश्यक है कि मन में सदैव प्रसन्नता और आशावादी विचारों का संचार बनाये रखा जाये। जो व्यक्ति चिन्ता, भय, क्रोध, असंतोष, ईष्र्या, द्वेष, प्रतिशोध, कपट आदि से ओतप्रोत रहता है वह अन्दर ही अन्दर मनोविकारों के ज्वारभाटे से ग्रसित रहता हैं। 

मानसिक स्वास्थ्य अनेक कारकों पर निर्भर करता है। जहाँ एक ओर आनुवांशिकता महत्वपूर्ण योगदान करती है वहीं पर उसके आचार-विचार, रहन-सहन, खानपान, सत्संग आदि का भी प्रभाव पड़ता है। सामान्य रूप से मानसिक स्वास्थ्य के स्तर को निम्नलिखित कारक निर्धारित करते हैं:- 

मानसिक स्वास्थ्य अनेक कारकों पर निर्भर करता है। जहाँ एक ओर आनुवांशिकता महत्वपूर्ण योगदान करती है वहीं पर उसके आचार-विचार, रहन-सहन, खानपान, सत्संग आदि का भी प्रभाव पड़ता है। सामान्य रूप से मानसिक स्वास्थ्य के स्तर को निम्नलिखित कारक निर्धारित करते हैं:- 

(1) शारीरिक एवं मानसिक विशेषताओं का अधिकांश अंश वंशानुक्रम से निर्धारित होता है। व्यक्ति का स्वभाव, मनोवृति, दृष्टिकोण, सहनशीलता, रक्त समूह, कुछ रोग जैसे-  सिजोफ्रेनिया, कलर ब्लाइंडनेस आदि पर वंशानुक्रम का प्रभाव पड़ता है। हमारी समस्त शारीरिक एवं मानसिक विशेषताएं माता पिता से प्राप्त होती हैं। 

(2) परिवार का वातावरण तथा पारिवारिक सम्बन्ध व्यक्ति की मानसिक स्थिति को निर्धारित करता है। बालक के मानसिक स्वास्थ्य की आधारशिला परिवार में पड़ती है तथा निरन्तर प्रभावित होती रहती है। परिवार में जिस प्रकार के सम्बन्ध होते हैं उसी प्रकार का आपसी सौहार्द, प्रेम, वात्सल्य, सहयोग, सहानुभूति आदि का स्तर होता है। 

(3) व्यक्ति सामाजिक नियमों एवं बंधनों का पालन करना सम्बन्धों से सीखता है। उसका प्रथम सम्बन्ध माता से होता है। उसके पश्चात सम्बन्धों का अनन्त सिलसिला शुरु होता है। विद्यालय, पड़ोस, खेलसमूह, कार्यसमूह सभी का वह सदस्य बनता है और सम्बन्ध संस्थापित करता है। उसके जितने ही सम्बन्ध घनिष्ठ होते हैं उतना ही वह मानसिक रूप से स्वस्थ होता है। आज व्यक्ति के सभी सम्बन्ध छिछले हो गये हैं, दिखावा मात्र होकर रह गये हैं, औपचारिकताएं निभायी जा रही हैं। यही कारण है कि मानसिक रोगियों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। 

(4) समायोजन (Adjustment) एक सार्वभौमिक तथा निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। व्यक्ति साधारण से जटिल अवस्था की ओर निरन्तर प्रयास करता रहता है। इस समायोजन का सम्बन्ध जैविकीय आवश्यकताओं की संतुष्टि से लेकर मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं जैसे सम्बन्ध स्थापन की इच्छा, प्रेम करने की इच्छा, रचनात्मक प्रदर्शन के अवसर प्राप्त करने की इच्छा की पूर्ति से होता है। हमारी दिन प्रतिदिन की क्रियाओं का अधिकांश सम्बन्ध समायोजन तथा अनुकूलन से होता है। जिस प्रकार का तथा जिस स्तर का समायोजन कर पाते हैं उसी स्तर का मानसिक संतोष प्राप्त होता है।

(5) व्यक्ति जैसा भोजन करता है वैसा ही उसका अन्तःकरण बनता है। प्राचीन लोकोक्ति है – ‘जैसा खाए अन्न, वैसा होय मन‘। हमारे भोजन का सीधा प्रभाव हमारे शरीर व मन पर पड़ता है। आहार शुद्धि से अन्तःकरण शुद्ध होता है। अन्तःकरण शुद्ध होने पर स्मृति दृढ़ होती है तथा  ऐसी स्मृति होने पर सम्पूर्ण ग्रन्थियों की निवृत्ति हो जाती है।  सात्विक भोजन से बना मन व्यक्ति को संतोष प्रदान करता है। राजसिक भोजन से बना मन भागता, विचरण करता तथा सदैव अस्थिर रहता है। तामसिक भोजन व्यक्ति को  पापाचरण में लिप्त रखता है। मनुष्य में सात्विक राजस तथा तामस तीन गुणों का समावेश होता है। जिसमें जिस गुण की प्रधानता होती है वैसा उसका स्वभाव बनता है। 

(6) व्यक्ति की जीवन शैली मानसिक स्वास्थ्य स्तर को निर्धारित करती है। प्रातःकाल का टहलना आवश्यक है। लेकिन आजकल प्रातःकाल उठना ही कठिन कार्य है टहलना अत्यन्त दुष्कर है। प्राकृतिक भोजन बलवर्धक, ज्ञानवर्धक, शक्तिवर्धक तथा शान्तिवर्धक होता है लेकिन आजकल फास्ट-फूड, खट्टे, कडुवे अति मसाले युक्त भोजन, नशीले पदार्थों का सेवन करने की आदत बढ़ती जा रही है। इसीलिए मानसिक रोगियों की संख्या भी बढ़ रही है। प्रातःकाल उठकर जल पीना शरीर तथा मन दोनों के लिए लाभकारी होता है। लेकिन आजकल प्रातःकाल चाय पीना आवश्यक हो गया है तथा यह प्यास बुझाने के लिए भी उपयोग में लायी जाने लगी है। परिणामस्वरूप अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो रहे हैं। प्रत्येक कार्य समय पर होने से मानसिक शान्ति मिलती है। इसके अतिरिक्त कार्य स्थल पर प्रेम, सहयोग तथा आत्मीयता का भाव मानसिक सुख शान्ति के लिए परम आवश्यक है। उचित तरीकों से अर्जित धन मन तथा शरीर दोनों को स्वस्थ रखता है। उससे संतोष रहता है तथा आत्मबल की वृद्धि होती है। लेकिन आजकल धन लोलुपता के कारण रात की नींद तथा दिन का चैन खोता जा रहा है। रात को जल्दी सोना तथा प्रातःकाल जल्दी उठना मनो- शारीरिक बलवर्धक होता है। इससे शरीर तथा मन स्वस्थ रहता है।

मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के उपाय

मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए आहार , नींद और ब्रह्मचर्य अर्थात संतुलित जीवन शैली और दिनचर्या व ऋतुचर्या  का पालन करना चाहिए। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ दिमाग रहता है। स्वस्थ शरीर रखने के लिए अपने सेहत का ध्यान रखना चाहिए। पौष्टिक, सुपाच्य, ताजा भोजन समय से करें। ताजे फल और सब्जियां, साबुत अनाज का प्रयोग करें। ठंडे और कच्चे खाद्य पदार्थों से बचें,सोने से से 2-3 घंटे पहले भोजन करें, पर्याप्त नींद लें, संतुलित जीवनशैली बनाए रखें।

कुछ नया सीखते रहना चाहिए। ऐसी गतिविधियों के लिए समय निकालें, जो आपको अच्छी लगती हैं जैसे किताबें पढ़ें,अपने दोस्तों या परिवार के साथ समय बिताएं। नशीले पदार्थों के सेवन से बचें क्योंकि इनके सेवन से तनाव और अवसाद के लक्षण और गंभीर हो जाते हैं। प्रकृति के साथ समय बिताएं जो आराम देह हो।

आज के समय में हर किसी की जिंदगी में तनाव है। जिसके चलते हम शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार हो जाते हैं। ऐसे में हमें तनाव को दूर करने के लिए नियमित रूप से व्यायाम करना, खेलना, टहलना आदि को अपनी दिनचर्या में शामिल करना चाहिए। मानसिक स्वास्थ्य के लिए हर दिन अनुभवी योग चिकित्सक की सलाह से कुछ यौगिक क्रियाएं जैसे  पद्मासन, वज्रासन, शीर्षासन, सर्वांगासन, हलासन, भुजंगासन, जानुशिर्षासन, त्रिकोणासन तथा उष्ट्रासन आदि का अभ्यास करें। इसके अलावा नाड़ी शोधन, उज्जयी प्राणायाम एवं ध्यान का नियमित अभ्यास तन व मन दोनों के लिए उपयोगी है। योग का नियमित अभ्यास स्मरणशक्ति को बढ़ाता है।

शरीर विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि शरीर तथा मन दोनों को स्वस्थ रखने के लिए विचारों का सकारात्मक होना वश्यक है। सकारात्मक सोच के व्यक्तियों के साथ अधिक समय बिताएं । दूसरों के विषय में अच्छा सोचने से विचार शैली पवित्र बनी रहती है। इससे तन पर बोझ नहीं पड़ता है। सादा जीवन उच्च विचार रखने से व्यक्ति कर्मठ, दृढ़ इच्छा धारी एवं तेजस्वी बनता है। अपनी जिंदगी में व्यक्ति को क्या करना हैं, इसके लिए सबसे पहले लक्ष्य तय करना चाहिए।अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए क्या-क्या करना पड़ेगा, इसको भी सुनिश्चित कर लेना चाहिए। इसके लिए व्यावहारिक तरीका ही अपनाना चाहिए। यह सब करने से वह अपने लक्ष्य तक आसानी से पहुंच जाएंगे। ऐसे में वे मानसिक रूप से स्वस्थ रहेंगे। जिंदगी में कई बार परेशानी आती है, इसके लिए हमें कभी-कभी दूसरों की जरूरत पड़ती है। ऐसे में हमें बिना संकोच किए मदद लेनी चाहिए। इससे काफी हद तक हमारी परेशानी कम हो जाती है और मानसिक रूप से स्वस्थ रखते हैं।

डाॅ.सुरेश कुमार
M.D. (Ay.),P.G.D.N.Y.Sc.
प्रभारी चिकित्साधिकारी
राजकीय आयुर्वेदिक चिकित्सालय,
तेलीबाग, लखनऊ (उ.प्र.)

Mental Health & Ayurveda

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