मानसिक रोग और महिलाएं​

मानसिक रोग किसी भी आयु वर्ग के लोगों में बिना किसी भेद के हो सकते हैं । बच्चे से लेकर बड़े-बूढ़े तक इनकी चपेट में देखे जा सकते हैं । हां कुछ विशेष कारणों की वजह से ये बच्चों और स्त्रियों को अधिक परेशानी में डाल देते है । संभवतः स्त्रियों को होने केे पीछे मूल कारण उनके आस-पास का वातावरण, पारिवारिक माहौल या परवरिश संबंधी विसंगतियां हो सकती है ।

मनोसंरचना की दृष्टि से पुरूष व स्त्री मनोविज्ञान में कोई अंतर नहीं है परंतु शारीरिक व क्रियात्मक रूप में स्त्रियां पुरूषों की अपेक्षा भिन्न होती है। स्त्री व पुरूष  में भिन्नता उनके शरीर में उपस्थित हार्मोन के कारण होती है। स्त्री हार्मोन इस्ट्रोजन व प्रोजेस्ट्रान तथा पुरूष हार्मोन टेस्टेस्टेरान के कारण स्त्री व पुरूष के शारीरिक, मानसिक व लैंगिक विकास होता है। यदि हार्मोन संतुलित है तो व्यक्ति स्वस्थ व हार्मोन असंतुलित है तो व्यक्ति शारीरिक, मानसिक रोग से ग्रस्त होता है। इन हार्मोन की वजह से स्त्री व पुरूष के मनोभावों मेे अंतर पाया जाता है। इसके कारण स्त्री पुरूष की मनोस्थिति, गुणधर्म, उत्साह, व ज्ञानशक्ति में भी अन्तर पाया जाता है। हार्मोन्स के कारण पुरूष के स्वभाव में कठोरता व स्त्री में कोमलता या नाजुकता प्रतीत होती है। यदि पुरूषों में स्त्री हार्मोन्स की अधिकता हो जाए तो उनमें स्त्रियोचित लक्षण अधिक देखे जाते है जैसे कोमलता, नाजुकता इत्यादि इसके विपरीत स्त्रियों के शरीर में पुरूष हार्मोन अधिक हो तो उनमें पुरूषों के समान कठोरता जैसे लक्षण मिलते है यहां तक कि कई स्त्रियों में दाढ़ी-मूंछ भी देखी गई है।

स्त्रियों के शरीर में स्थित गर्भाशय के कारण भी उससे संबंधित व्याधियां रक्तप्रदर, श्वेतप्रदर, अल्पार्तव जैसी व्याधियां केवल स्त्रियों में होती है। इनका भी प्रभाव स्त्री की मानसिकता पर पड़ता है। स्त्री जीवन में होनेवाले अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन मासिकधर्म का प्रारंभ, संभोग, गर्भधारण, प्रसव, स्तनपान, रजोनिवृत्ति आदि स्थितियां स्त्री की अवस्था को प्रभावित करती है। उपरोक्त शारीरिक कारणों के अलावा अनेक बाह्य परिस्थितियां भी स्त्री की मानसिक अवस्था के लिए जिम्मेदार होती है। जैसे पालन पोषण, सामाजिक स्थिति, अशिक्षा, यौनशोषण, बालविवाह, विलंब विवाह, पुरूष प्रधान संस्कृति, अविवाहित होना, बंध्यत्व, पति का वियोग या उसका व्यसनी या दुराचारी होना, दहेज के कारण प्रताड़ित होना इत्यादि। उपरोक्त सभी कारणो से स्त्रियों में अनेक मानसिक विकार उत्पन्न होते है जैसे एन्जाइटी, डिप्रेशन, मासिक धर्म संबंधी मानसिक रोग, प्रसवोत्तर अवसाद, चिड़चिड़ापन इत्यादि का विवरण इस लेख में।

योषापस्मार (हिस्टीरिया)

यह महिलाओं में होने वाला प्रमुख मानस रोग है। ‘योष अर्थात् युवा स्त्री। यह युवा स्त्रियों में अधिकांशतःहोता है, इसीलिए इसे योषापस्मार कहते है। 

लक्षण – इस रोग में अनेक प्रकार के विचित्र लक्षण प्रकट होते हैं, रोगी जिस रोग का ध्यान करता है, उस रोग के लक्षण प्रकट हो जाते हैं या जिन लक्षणों को रोगी देखे या सुने वे लक्षण स्मरण करने पर प्रकट हो जाते है। दांत बंद करके घंटो इसी हालत में पड़े रहना, साथ ही मोह, आक्रन्दन, रूदन, भ्रान्ति, प्रलाप, बुद्धिभ्रम, रोशनी से द्वेष, आक्रोश, उच्च स्वर में हँसना, कण्ठ, श्लेष्माशय या अन्य अंगों में पीड़ा, स्पर्शशक्ति की वृद्धि, श्वासकृच्छ्रता, उदर से लेकर गले तक के अन्दर मिथ्या गुल्म की प्रतीति, मुच्र्छा और बुद्धिभ्रंश – ये सब लक्षण प्रायःस्त्रियों में उत्पन्न होते है। हिस्टीरिया में रोगी को यदि बेहोशी आ जाए तो उसे कुछ समय के लिए अकेला छोड़ देना चाहिए। सुगन्धित पदार्थों को सुंघाने की अपेक्षा रोग के कारणों को तुंरत पता लगातार ही निदान करना चाहिए।

डिप्रेशन

महिलाओं के अवसाद से घिरने की आशंका पुरुषों से अधिक होती है जिसमें अपराधबोध, अत्यधिक नींद, आवश्यकता से अधिक खाना-पीना और वजन का बढ़ना शामिल है। माहवारी, गर्भावस्था और रजोनिवृत्ति के समय होने वाले हॉर्मोनल बदलाव के कारण भी अवसाद की स्थिति बन सकती है। प्रसवोत्तर होने वाला अवसाद हर 7 में से 1 महिला को प्रभावित करता है। डिप्रेशन में रोगी उदास रहता है। बार-बार रोता है, नींद नहीं आती, किसी भी कार्य को करने में मन नहीं लगता,  एक स्थान पर केवल पड़े रहने की इच्छा होती है। यह रोग प्रायः सदमे के कारण होता है। इसके प्रमुख कारण किसी निकटतम व्यक्ति की मृत्यु, धन-हानि, परीक्षा में असफल होना, नौकरी या रोजगार का चले जाना तथा मानहानि हो सकते है।

एन्जा़इटी (अकारण घबराहट)

बना कारण घबराहट होना एक ऐसा मानसिक रोग है  जिसमें रोगी को बेवजह डर लगता है अथवा उसे जीवन के  लिए खतरा महसूस होने लगता है। इसलिए उसे विशेष परिस्थितियों में घबराहट होने लगती हैं। आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में इस रोग को ‘एंग्जाइटी डिसआर्डर’ (Anxiety disorder) कहते है जिसके शिकार कभी न कभी लगभग एक चैथाई लोग अवश्य होते हैं लेकिन इससे युवा वर्ग (20से 35 वर्ष की उम्र में) और महिलाएं अधिक पीड़ित होती हैं। इस बीमारी का संबंध आनुवांशिकता से भी है और एक ही परिवार में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। युवा वर्ग में इस बीमारी का कारण यह है कि उम्र के इसी पड़ाव पर आकर लोगों को सर्वाधिक संघर्ष करना पड़ता है।

घबराहट (एग्ंजाइटी) में दिल की धड़कन तेज हो जाती  है। सीने में घुटन और मन में भारीपन बढ़ता ही जाता है। सांस की गति बढ़कर मौत का अहसास कराने लगती है। दिल के दौरे में भी इसी प्रकार के लक्षण दिखाई देते है। ईसी.जी तथा अन्य किसी प्रकार की जांच से किसी भी तरह की खराबी का पता पूरा नहीं चलता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हम सभी कभी न कभी  तनाव, उत्तेजना बेचैनी से गुजरते हैं। कुछ विशेष परिस्थितियों में हमें घबराहट भी खूब होती है। जैसे बिना टिकट रेल में सफर करते समय टिकट चेकर का एकाएक आ जाना, लड़की वाले लड़के को देखने आ रहे हैं तब, पहली बार इंटरव्यू का सामना करने पर आदि। पर ये किसी बीमारी के लक्षण नहीं है। अकारण घबराहट बीमारी तब होती है, जब कोई अज्ञात भय मन में बैठ जाता है। 

उपचार:- अकारण घबराहट एक ऐसा मनोरोग है जिसका यदि शुरू में ही उचित उपचार न कराया जाए तो यह रोग और भी जटिल होकर गंभीर रूप धारण कर सकता है। फिर  लंबे समय तक रोगी कोे इसकी पीड़ा झेलनी पड़ती है। 

अकारण घबराहट के इलाज के लिए मनोचिकित्सक साइको थैरेपी के अंतर्गत व्यवहार चिकित्सा (बिहेवियर थैरेपी) की मदद लेते है परंतु यदि रोग ज्यादा पुराना एवं उग्र हो जाए तो चिकित्साओ के साथ दवाओं की भी मदद लेनी पड़ती है। मनोचिकित्सकों द्वारा रोगी के व्यवहार तथा मानसिक दशा की जांच कर रोग के मूल कारणों को पता लगाया जाता है फिर उन्हें सही रूप में व्यवस्थित किया जाता है। रोग के कारण को मन से निकाल कर रोगी को मानसिक रूप से वास्तविक धरातल पर लाया जाता है।

शिथिलीकरण के अभ्यास से भी (रिलेक्सेशन एक्सरसाइज) अकारण घबराहट में काफी लाभ होता है। कुछ योगासनों एवं ध्यान की विशेष विधियों से भी इस रोग के उपचार में चामत्कारिक मदद मिलती है। शोधों से पता चला है कि मनपसंद संगीत सुनने से रोगी शीघ्र ही इस रोग से निजात पा जाता है।

मासिक धर्म की पूर्वावस्था
(Pre Menstrual Syndrome)

मासिक धर्म के एक या दो सप्ताह पूर्व कोई-कोई स्त्री बेवजह ही तनावग्रस्त रहती है, अचानक चिड़चिड़ापन, निराशा, बुखार, सिरदर्द, पेट फूलना, थकान जैसा लगना, किसी भी कार्य में मन न लगना, ज्यादा गुस्सा या रोने की इच्छा होना। ऐसे अनेक लक्षण मासिक धर्म के पूर्व स्त्रियों में पाए जाते हैं। मासिक धर्म के एक दिन पूर्व इन लक्षणों में बढ़ोत्तरी होती है। सिरदर्द व तनाव तो सामान्यतः होनेवाले लक्षण हैं। किसी किसी को उल्टी , छाती में दर्द होता है। कभी कभी यह स्थिति असहनीय हो जाती है। जिन महिलाओं को संधिगत वेदना की बिमारी होती है उन्हें मासिक धर्म के पूर्व या उन दिनों संधियों में दर्द बढ़ जाता है।दरअसल मासिकधर्म के पूर्व होनेवाली स्त्री की यह सामान्य अवस्था है। अधिकांश को इस वेदना से हर माह गुजरना पड़ता है पर कुछ महिलाओं को यह तकलीफ इतनी अधिक होती है कि इसका प्रभाव उनके दैनंदिन व सामाजिक जीवन पर पड़ता है। उम्र के बढ़ने के साथ व गर्भधारण के पश्चात इसमें कमी पाई जाती है।

आधुनिक शास्त्र के अनुसार हार्मोन के असंतुलन (इस्ट्रोजन व प्रोजेस्टेरान) नाड़ीसंस्थान, रक्तवह संस्थान व चयापचय विकृति की वजह से स्त्री की मानसिक व शारीरिक अवस्था प्रभावित होती है। मस्तिष्कगत सेरोटोनिन के स्तर में परिवर्तन होने पर इन दिनों स्त्री के मूड में परिवर्तन होता है जैसे अत्यंत उदास रहना, गुस्सा आना, बेवजह चिड़चिड़ापन इत्यादि। आधुनिक शास्त्र में इसे P.M.S.- Pre Menstrual Syndrome कहते हैं।

मैथुन सम्बन्धी विकार

विवाहित युगलों में इस प्रकार के विकार अधिकांशत मिलते हैं जिसमें प्रायः स्त्रियों में स्वाभाविक लज्जा एवं भय के कारण मैथुन के प्रति अनिच्छा तथा अतृप्ति आदि विकार पाये जाते हैं। विषाद प्रधान मानस रोगों या किसी शारीरिक रोग के कारण उत्पन हुई निर्बलता के कारण भी इस प्रकार के लक्षण उत्पन्न होते है।

योनिसंकोच
(Vaginismus)

इसमें स्त्रियों में श्रोणि की पेशियों में संकोच के फलस्वरूप रतिक्रिया पूरी तरह से नहीं हो पाती। यह प्रायःस्त्री के मन में संभोग के प्रति बसे किसी डर की वजह से या अनिच्छा के कारण होता है। संभोग के स्मरण मात्र से ही स्त्रियों में योनिसंकोच उत्पन्न हो जाता है। 

कुछ नाजुक स्त्रियां जो भ्रमवश संभोग को पापाचार, दुष्कर्म या कष्टकर समझती हैं,संभोग काल में उनके मन में भय की भावना उत्पन्न होती है। फलतः अनायास या अनैच्छिक रूप से उनके निम्न उदर की पेशियाँ सिकुड़ जाती हैं जिससे उनका योनिद्वार चिपककर पेट से सट जाता है। फलतः पति के द्वारा लिंग प्रवेश की चेष्टा प्रायः सफल नहीं हो पाती।

मैथुनासह्यता (मैथुन सहन न होना)

संभोग के प्रति अनिच्छा अथवा मिथ्या भ्रम या भय के  कारण स्त्रियों में मैथुनासह्यता उत्पन्न होती है। 

अतृप्ति – सम्भोग क्रिया सम्बन्धी अज्ञान के कारण प्रायः अतृप्ति की अवस्था उत्पन्न होती है। 

स्त्रियों में अनार्तव, अल्पार्तव, कष्टार्तव, प्रदर तथा अत्यार्तव के उत्पादक कारणों में मनोभावों का विशेष योगदान है। अत्यधिक क्रोध, शोक, चिन्ता, ईष्र्या, भय आदि  मनोभावों के कारण उपर्युक्त विकार उत्पन्न होते हैं। अत्यधिक भय, क्रोध एवं शोक की दशा में गर्भस्राव एवं गर्भपात भी होते देखा गया है।

गर्भावस्था में होने वाले मानसिक रोग

संभोग के प्रति अनिच्छा अथवा मिथ्या भ्रम या भय के  कारण स्त्रियों में मैथुनासह्यता उत्पन्न होती है। 

अतृप्ति – सम्भोग क्रिया सम्बन्धी अज्ञान के कारण प्रायः अतृप्ति की अवस्था उत्पन्न होती है। 

स्त्रियों में अनार्तव, अल्पार्तव, कष्टार्तव, प्रदर तथा अत्यार्तव के उत्पादक कारणों में मनोभावों का विशेष योगदान है। अत्यधिक क्रोध, शोक, चिन्ता, ईष्र्या, भय आदि  मनोभावों के कारण उपर्युक्त विकार उत्पन्न होते हैं। अत्यधिक भय, क्रोध एवं शोक की दशा में गर्भस्राव एवं गर्भपात भी होते देखा गया है।

प्रस्वोत्तर होने वाले मानसिक विकार

प्रसवोत्तर अवसाद – प्रसूति के पश्चात स्त्री को 6 महीने तक होने वाले अवसाद (Depression) को प्रसवोत्तर अवसाद कहते हैं। इसके भी वही लक्षण होते हैं जो सामान्य अवसाद के होते हैं। 8 से 15 प्रतिशत स्त्रियों में 2 से 3 महीने में प्रसवोत्तर अवसाद के लक्षण उत्पन्न होते है। जिन स्त्रियों में अवसाद का पूर्व इतिहास मिलता है उनमें पुनरावृति की सम्भावना 30 प्रतिशत बढ़ जाती है। 

प्रसव के बाद कई बार मनस्ताप में रोगी मनोविदलता (सिजोफ्रेनिया), उन्मादी अवसादी मनस्तरपी (मैनिक डिप्रेसिव साईकोसिस) तथा अंगिक मनस्ताप (ऑर्गेनिकसाइकोसिस) इत्यादि से पीड़ित हो सकता है। इसके लक्षणों में नींद नहीं आना या आकर उचट जाना, ठीक से नहीं बोलना, तोड़फोड़ करना, लगातार रोना या हंसते रहना, खाने-पीने मल- मूत्र त्यागने का ध्यान नहीं रखना, दूसरों को शत्रु समझना, नवजात शिशु के पालन व दुलार का ध्यान नहीं रखना भी शामिल है। 

इन रोगों के कारण के बारे में निश्चयपूर्वक तो कुछ भी कहना कठिन है लेकिन अधिकतर इनके पीछे पुराने रीति-रिवाजों की विसगंतियां ही पाई जाती हैं। यह रोग गरीबी, असीमित परिवार, पारिवारिक दबाव, अशिक्षा काम के बोझ, पति की अनुपस्थिति के कारण से उत्पन्न होता हैं। 

प्रसवोत्तर मनोविकृति

यह अत्यंत गंभीर व्याधि है। 1000 में से 1-4 सूतिकाओं में यह व्याधि पायी जाती है। रूग्णा में विषमयता, भ्रम एवं व्यामोह के लक्षण पाये जाते है। जिन स्त्रियों में यह पहले हो चुका है उनमें पुनरावृत्ति की सम्भावना बढ़ जाती है।

महिलाओं में चिड़चिड़ापन

चिड़चिड़ापन इंसान की भीतरी असंतुष्टता को दर्शाता है लेकिन महिलाओं के अंदर चिड़चिड़ापन कुछ ज्यादा ही देखने को मिलता है। अधेड़ उम्र की अवस्था के आस-पास पहुंचते ही वह और भी चिड़चिड़ी हो जाती हैं। महिलाएं चिड़चिड़ी होने के कई मानसिक, शारीरिक, सामाजिक एवं व्यक्तिगत कारण हैं। 

पुरूषों के मुकाबले महिलाओं के अधिक चिड़चिड़े होने का एक कारण है उनकी परवरिश। महिलाओं का बचपन से ही भेदभाव के साथ पाला जाता है। लड़कों को जितनी स्वतंत्रता दी जाती है लड़कियों पर उतनी ही पाबंदी होती है। लड़कियों कभी स्वतंत्र होकर नहीं जी पाती। हर कार्य के लिए या तो उन्हें किसी पर निर्भर होना पड़ता है या फिर अपनी खुशियों को पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।

स्त्री का जीवन ही ऐसा होता है कि रिश्तो व जिम्मेदारियों के बोझ तले अपने बारे में वह सोच भी नहीं  पाती यहां तक कि कई बार उसकी प्रतिज्ञा-हुनर सब दबे रह जाते हैं। यदि वह अपना अस्तित्व कायम रखने की कोशिश भी करे तो कई समझौते करने पड़ते है। घुटन व निर्भरता का यह सिलसिला चलता रहता है तब बच्चे बड़े होकर कमाने लगाते है यहां जेनरेशन गैप के कारण उनके विचारों में मतभेद होने लगते हैं। बच्चे अपने अंदाज में पैसा कमाते व खर्च करते है। इस स्थिति में भी महिला को पति या बच्चों पर निर्भर रहना पड़ता है। एक उम्र के बाद हर महिला को बहू-बेटे पर निर्भर रहना पड़ता है। कहीं आना-जाना हो या और कोई बात हो यह सोचकर या अकेलेपन की वजह से महिलाएं चिड़चिड़ी होने लगती है। महिलाओं के चिड़चिड़ेपन का एक कारण है ‘‘बहू’’ क्योंकि बहू के आने के बाद स्त्री महसूस करती है कि जिस घर व बेटे को उसने अपने ढंग से संवारा था वह उसे छिनता हुआ नजर आता है क्योंकि वह देखती है घर पर उससे ज्यादा बहू का अधिकार है यह बात उस महिला को कचोटती रहती है। तब उसका चिड़चिड़ा होना स्वाभाविक है। महिलाओं में मेनोपाज़ के समय अधिक चिड़चिड़ापन रहता है।

मेनोपाॅज व चिड़चिड़ापन

महिलाओं में सबसे अधिक चिड़चिड़ापन 40-45 वर्ष की उम्र के आसपास देखने को मिलता है जब वह मनोपाॅज से गुजर रही होती है। मेनोपाॅज अर्थात् रजोनवृति यानी मासिक धर्म का रूक जाना। किशोरावस्था में प्रारम्भ हुआ मासिक धर्म 40-45 वर्ष की उम्र के आस-पास समाप्त हो जाता है। इसी के साथ महिलाओं में प्रजनन करने की क्षमता समाप्त हो जाती है या होने लगती है। जिसके कारण यौन शक्ति या यौन आनंद में भी उनकी रूचि क्षीण होने लगती है। 

रजोनिवृति के चलते महिलाओं में कई शारीरिक एवं नसिक परिवर्तन आते हैं जिन्हें वह स्वीकार नहीं कर पाती और चिंता एव ड़चिड़ेपन का शिकार हो जाती है। जैसे हाॅटफ्लशेज अर्थात् शरीर में जरूरत से ज्यादा गर्मी लगना। नींद न आना या रात में बिस्तर से उठ जाना, अधिक पसीना आना, स्नायु तनाव, डिप्रेशन, थकान, चक्कर आना, बार-बार मूत्रप्रवृत्ति, शरीर में कंपन महसूस करना या शरीर का सुन्न हो जाना, वजन बढ़ जाना, स्तनों का लटकना, चेहरे पर अनचाहे बालों का उग जाना, झाइयां इत्यादि।

रजोनिवृत्ति का शारीरिक प्रभाव के साथ मानसिक प्रभाव महिलाओं को अधिक प्रभावित करता है जिसके कारण महिलाएं स्वयं को निर्भर और असुरक्षित महसूस करती हैं जिसकी वजह से चिड़चिड़ापन और बढ़ने लगता है।

महिलाओं को लगने लगता है कि अब उनमें पहले वाली वो बात नहीं बचीं  इसलिए उनका पति उनमें रूचि नहीं  दिखाता। ऐसे में छोटी नोक-झोंक भी उन्हें बड़ी लगती है और स्वभाव और चिड़चिड़ा होने लगता है।

स्वयं के शरीर में बदलाव को महिलाएं स्वीकार नहीं  कर पाती उन्हें अपना सौंदर्य एवं ताकत खोती हुई मालूम पड़ती है जिसके चलते वह स्वयं को असहाय एवं दुसरे पर निर्भर पाती है।

उम्र और रजोनिवृत्ति के चलते महिलाएं वह सारे काम उतनी फुर्ती से नहीं कर पातीं जितना पहले करती थी। इसके चलते या तो कार्य पूरे नहीं हो पाते या फिर ठीक से नहीं हो पाते । ऐसे में उन्हें अपने ही काम से संतुष्टि नहीं  मिलती और मन चिड़चिड़ा होने लगता है।

मेनोपाॅज के कारण स्त्री शरीर में परिवर्तन आते हैं  इसके अलावा अन्य बाहरी कारण भी होते हैं जिनके कारण  महिलाएं चिड़चिड़ी हो जाती हैं। जैसे- 

मेनोपाॅज की जो उम्र होती है यह लगभग वही उम्र होती है जब बच्चे बड़े हो जाते हैं। अपनी इच्छा से अपनी उम्र से जीना चाहते हैं या तो वह मां का कहना नहीं मानते या फिर अपनी पढ़ाई -लिखाई के लिए घर से बाहर रहने लगते हैं  या फिर शादी हो जाती है तो वह अपने जीवनसाथी के साथ अधिक व्यस्त हो जाते है और उनकी प्राथमिकताएं बदल जाती है।

इसी उम्र के आस-पास या तो सास-ससुर खत्म हो जाते हैं या फिर उन्हें कोई ऐसा रोग घेरे रहता है कि जिसकी सेवा उससे नहीं हो पाती यदि वह गुजर जाते हैं तो वह अकेली हो जाती है।

लगभग इसी उम्र के आसपास पति भी रिटायर होता है जिसके कारण वह अपना अधिकतर समय घर में ही बिताते हैं जिसके चलते काम भी बढ़ जाते हैं और रोज की चिकचिक भी।

इन्हीं तमाम कारणों को जब पुरूष नहीं समझ पाता और उल्टा यह कहता है कि तुम पहले जैसी नहीं रही, तुम कितनी चिड़चिड़ी हो गई हो, कोई भी काम ठीक से नहीं करती हो, गुस्सा तुम्हारी नाक पर रखा रहता है आदि तो स्त्री को और भी बुरा लगता है कि जिसके साथ उसने इतना वक्त बिताया है वही उसे नहीं समझता तो पुरूष का यही स्वभाव स्त्री के चिड़चिड़े स्वभाव में घी का काम करता है।

चिकित्सा:- इस प्रकार जीवन की भिन्न-भिन्न अवस्थानुसार महिलाएं स्वयं को मानसिक समस्याओं से जूझती हुई पाती है परंतु इसका उपचार अत्यंत धैर्यपूर्वक किसी योग्य स्त्रीरोग चिकित्सक के मागदर्शन में करना चाहिए। औषधि चिकित्सा के साथ-साथ योग चिकित्सा व पंचकर्म इस स्थिति में लाभकारी सिद्ध होती है।

मनोचिकित्सा (साईकोथेरैपी), एवरशन थैरेपी (Adversion Therapy) तथा अन्य औषधियों की सहायता से उपचार करना चाहिए। आसपास के वातावरण में सुधार भी करना चाहिए। मनोरोग के कारणों को दूर करना, औषधियों का उपयोग, मनोचिकित्सा, व्यायाम, घुमाने के लिए बाहर जाना, धार्मिक शिक्षा इत्यादि महत्वपूर्ण हो सकते है। 

अगर स्त्रियों में इस तरह के रोगों की कमी करना चाहते हैं तो उनके प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलकर आत्मीयता का भाव प्रकट करना चाहिए। उनके मानसिक स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए सात्विक विचार, प्रधान, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक साहित्य भी पढ़ने को देना चाहिये। इससे उनमें वैचारिक परिवर्तन आएगा।

अतः मानसिक रोग से ग्रस्त स्त्री में औषधोपचार के साथ-साथ व्यावहारिक चिकित्सा की अत्यन्त आवश्यकता रहती है। शारीरिक, मानसिक एवं व्यावहारिक तीनों ही प्रकार के उपचार साथ-साथ अपेक्षित रहते हैं।

डाॅ. अंजू ममतानी
‘जीकुमार आरोग्यधाम’,
238, गुरु हरिक्रिशन मार्ग,
जरीपटका, नागपुर - 14

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