श्री गुरु गोबिंद सिंघ महाराज के दरबार अनंदपुर साहिब में 12-13 साल का बालक जोगा व उसका पिता पशौर गांव की संगत के साथ दर्शन हेतु आए। गुरुजी ने देखा कि बालक जोगा बड़े प्रेम से संगत की सेवा कर रहा है और मग्न होकर कथा-कीर्तन व उपदेश सुनता है। गुरुजी ने उसको अपने पास बुलाकर पूछा- काका, तुम्हारा नाम क्या है? उसने हाथ जोड़कर बताया “जोगा”। गुरूजी ने कहा-तू किसका जोगा है? जोगे ने कहा, मैं आपका जोगा हूँ। गुरुजी ने फरमाया-अगर तू हमारा जोगा है. तो हम तुम्हारे जोगे हुए। कुछ समय पश्चात संगत पशौर वापस जाने लगी तब जोगे को सतगुरूजी ने अपने पास ही रख लिया और उसे अमृत छकाकर जोगा सिंघ नाम रख दिया। भाई जोगा बड़े प्रेम से गुरुजी की सेवा करने लगा। सेवा करते-करते जब कुछ साल बीत गए, तब उसके माता-पिता गुरुजी के पास आकर विनंती करने लगे कि सच्चे पातिशाहजी। जोगे सिंघ का रिश्ता तय किया है, आप आज्ञा करें तो घर जाकर इसका विवाह कराएं। उसके बाद पुनः वापस आपकी सेवा में हाजिर होगा। सतिगुरू ने जोगे से पूछा तुम्हारी क्या इच्छा है? उसने कहा-गुरुजी, जो आपका हुक्म, मैं वही करने के लिए तैयार हूँ। गुरुजी ने कहा-तुम घर जाकर विवाह करो, परंतु हमारा हुक्म पहुंचते ही शीघ्र चले आना।
आज्ञानुसार जोगा सिंघ माता-पिता के साथ घर गया और शीघ्र ही उसके विवाह का कार्य आरंभ हुआ। रीति-रिवाज अनुसार वह बारात लेकर ससुराल पहुंचा। इधर गुरुजी ने जोगा सिंघ की परीक्षा लेने हेतु एक सिख को उसके पीछे भेजा और उसे आज्ञा दी कि जब जोगा सिंघ की शादी के दो लावें (फेरे) हो जाएंगे, उस समय हमारा हुक्मनामा उसके हाथ में देना। जब भाई जोगा सिंघ ने दो फेरे लिये और तीसरे के लिए तैयार हुआ, तब सिख ने गुरुजी का वह हुक्मनामा उसके हाथ में दिया, जिसमें लिखा था कि जैसे ही तुम हमारा हुक्मनामा देखो, उस समय चाहे दिन हो या रात, तुरंत अनंदपुर की ओर चले आना व किसी अन्य कार्य के लिए कदम नहीं बढ़ाना। हुक्म पढ़कर भाई जोगा सिंघ बड़ा हैरान हो गया और आज्ञानुसार तीसरे फेरे के लिए कदम नहीं बढ़ाए। यह देख माता-पिता व संबंधियों ने कारण पूछा, तो जोगा सिंघ ने गुरुजी का हुक्म सुनाया और कहा कि मैं उनकी आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सकता। पिता व संबंधियों ने जोगा सिंघ को बहुत समझाया कि बाकी दो लावां (फेरे) पूरे कर फिर भले ही चला जा। परंतु भाई जोगासिंघ ने किसी की कोई बात नहीं सुनी।
भाई जोगा सिंघ सब कुछ बीच में छोड़कर अनंदपुर के लिए निकला। रास्ते में भाई जोगा सिंघ के मन में अहंकार आ गया कि मेरे जैसा गुरु का हुक्म मानने वाला दूसरा कोई आज्ञाकारी सिख हो नहीं सकता, जो विवाह को छोड़कर गुरुजी के पास जा रहा है। इस तरह मन में अहंकार धारण कर बीच रास्ते हुशारपुर पहुंचा और रात काटने के लिए एक धर्मशाला में रुक गया। गुरुजी ने उसके मन का अहंकार दूर करने के लिए एक कौतुक रचा। रात को भाई जोगा सिंघ ने धर्मशाला के सामने वाले मकान की खिड़की में सुंदर वेश्या देखी, जिसके रूप को देखकर जोगा सिंघ का मन डोल गया व उससे मिलने के लिए उतावला हो गया। कामवश जोगा सिंघ उस वेश्या से मिलने चल पड़ा। गुरुजी ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा कि हमारा सिख अपना धर्म गंवा रहा है, यदि अब इस कुकर्म से उसे हमने नहीं बचाया तो कौन बचाएगा, उसको नर्क से बचाना चाहिए। सतिगुर सिख की करै प्रतिपाल ।। सेवक कउ गुर सदा दइआल ।। (श्री गुरु ग्रंथ साहिब पृ.क्र. 286) दयालु गुरुजी ने चांदी की लकड़ी हाथ में ली और गले में लंबा जामा पहनकर शाही चौकीदार अर्थात् राजा के चौकीदार का रूप धारण कर वेश्या के दरवाजे पर पहरेदार बनकर खड़े हो गए। राजा के चौकीदार को पहरे पर खड़ा देख जोगा सिंघ वापस चला गया। आधी रात को कामवश जोगा सिंघ फिर वेश्या के पास गया, लेकिन पुनः चौकीदार को खड़ा देख वापस लौट गया। तीसरी बार, फिर चौथी बार वहां गया और चौकीदार को देखकर वापस मुड़ गया। आखिरी बार जोगा सिंघ निराश होकर लौटने लगा, तब चौकीदार ने कहा- ‘ओ गुरु के सिख! तुम्हारी बुद्धि क्यों नाश हो गई है? क्यों नकों की सीढ़ी चढ़ने का प्रयत्न बार-बार कर रहे हो, अमृत वेला हो गई है, जाओ स्नान कर तन-मन को शांत करके प्रभु को याद करो।’ चौकीदार के यह वचन सुनकर जोगा सिंघ को ज्ञान हो गया और शर्मसार होकर वापस धर्मशाला आ गया। मन को धिक्कारने लगा यदि चौकीदार नहीं होता तो आज मैं निश्चित रूप से नर्कगामी हो जाता।
पश्चाताप करते जोगा सिंघ अनंदपुर पहुंचा और गुरु के चरणों में माथा टेककर बैठ गया। गुरुजी ने मुस्कराकर सिख संगत को फरमाया देखो भाई, जोगा सिंघ कितना आज्ञाकारी सिख है, जो हुक्म मानकर विवाह बीच में छोड़ आया है। मुस्कराते देख सिखों ने विनंती कि गुरुजी आपके मुस्कराने का क्या राज है? गुरुजी ने कहा-यह तो आप जोगा सिंघ से ही पूछ लें, जिसने सारी रात हमें सोने नहीं दिया। भाई जोगा सिंघ समझ गया कि गुरुजी ही चौकीदार का रूप धारण कर मेरी रक्षा कर रहे थे। शर्मसार होकर जोगा सिंघ गुरुजी के चरणों में गिरकर कहने लगा- आप धन्य हैं, जिन्होंने मुझे नरक में जाने से बचाया। कृपा करके मेरी वार्ता सिखों को सुनाएं, ताकि अन्य सभी अहंकार त्यागकर कुकर्मों से बचें। जोगा सिंघ ने गुरुजी से अपनी गलती की क्षमा मांगी। दयालु गुरुजी ने क्षमादान देकर उसे निहाल कर दिया और कहा गृहस्थ जीवन धारण कर अपना जीवन सफल करो। जोगा सिंघ आज्ञानुसार अपने घर पशौर चला गया और गृहस्थ आश्रम में अकाल पुरख का गुणगान कर परम पदवी ‘मोक्ष’ को प्राप्त हुआ।
गुरबाणी फरमाती है-
“भाउ भगति करि नीव सदाए ।
तउ नानक मोखंतरु पाए ।।” (श्री गुरु ग्रंथ साहिब पृ.क्र. 470)
अर्थात् अपने को नीचा जानकर अहंकार त्याग, भावना से भक्ति व सेवा करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। भाई जोगा सिंघ का गुरुद्वारा पशौर शहर में प्रसिद्ध है, जो वर्तमान में पाकिस्तान में है। इस तरह गुरुजी अपने शिष्यों की समय-समय पर परीक्षा लेकर उन्हें सद्बुद्धि का ज्ञान कराते थे। उन्हें समझाते थे कि सेवा करते समय अहंकार का त्याग करना चाहिए व हमेशा परस्त्री गमन इत्यादि कुकर्मों से हमेशा बचना चाहिए। ऐसे महान गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंघ महाराज का जन्म पोह सुदी सप्तमी संवत 1723 को पटना शहर में हुआ। उनके चरणों में कोटि-कोटि नमन…!