दोषधातुमलमूत्रं हि शरीरम् ।
आयुर्वेद के अनुसार यह शरीर की संज्ञा समझी जाती है। हमारा शरीर वात-पित्त-कफ यह त्रिदोष, रस-रक्त-मांस-मेद-अस्थि-मज्जा -शुक्र यह सातधातु तथा स्वेद-पुरीष-मूत्र इनमें स्थित है। मूत्र का वर्णन त्रिमल में पाया जाता है। मूत्र शरीरस्थ आप महाभूत प्रभूत शरीरव्यापारजन्य मलस्वरूप उत्पन्न होता है। क्लेदवहन यह मूत्र का कार्य है। संहितामें धारणीय वेग तथा अधारणीय वेगों का वर्णन किया है। मूत्रवेग अधारणीय वेगों में संकलित किया है। मूत्रवेग धारण करने से तीव्र वातप्रकोप और शूल उत्पन्न होता है।
हृदय-शिर-बस्ति यह त्रिमर्म आयुर्वेद में वर्णित है। मूत्रवह स्त्रोतस् का मूल बस्ती है। चयापचय में मूत्रनिर्माण होता है। वेगधारण, मिथ्याआहार विहार, चिंता, संक्रमण आदि कारणों से मूत्रवह संस्थान में विकृती पायी जाती है। मर्माभिघात मृत्यू का कारण बन सकता है। वंक्षण और बस्ती यह दोनों मूत्रवह स्त्रोतस् के प्रमुख अंग माने जाते हैं। इनकी दुष्टी से मूत्रवह स्त्रोतस के कई विकारजन्य अवस्था निर्माण हो जाती है। अतिमूत्रता, आविलमूत्रता, मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात, अल्पमूत्रता आदि उदाहरण वैद्यकीय में पाये जाते हैं।
प्रथमतः रुग्ण से अन्यव्याधि का इतिहास प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक है। जैसे कि कामला व्याधि में पीतवर्णात्मक मूत्रप्रवृत्ति होती है। पित्तदोष के विकृति के कारण यह अवस्था का इलाज कामला व्याधि के संप्राप्ति विघटन प्रस्तुत विरेचन से ही संभव है।
मूत्रकृच्छ्रव्याधि अपानवायु दुष्टीफलतः होता है। इसे स्नेहन-स्वेदन पूर्वक बस्ति चिकित्सा उपयुक्त होती है। आविलमूत्रता अथवा आम तथा क्लेद के कारण होती है। यहाँ पृथ्वी तथा जल भूताग्नि व्यापार मंदता की स्थिती पायी जाती है। दीपन, पाचन, दोषों का शोधन इत्यादि स्रोतोरोध नाशक चिकित्सा से रोगोपशमन होता है।
मूत्राघात – बस्ती की कार्यक्षमता अत्यंत कमी होने की वजह से मूत्राघात अवस्था उत्पन्न होती है। यह अत्यंत गंभीर है। विरेचन चिकित्सा से उत्तम लाभ मिलता है।
अतिमूत्रता – मूत्र उत्पत्ति प्रचुर होती है। जलमहाभूताग्नि मंदता इसका कारण है। दीपन, पाचन तथा दोषशोधन चिकित्सा से उपशय होता है।
मूत्राशय की क्षमता बढ़ाने में कई वनस्पतीद्रव्य उपयुक्त है। गोक्षुर द्रव्य चुर्णस्वरूप, कषायस्वरूप तथा आसवस्वरूप रोगी जब सेवन करता है तब मूत्र की मात्रा में वृध्दि होती है।
पुनर्नवा यह अन्य ऐसी वनस्पती है जिससे मूत्र उत्पत्ति और क्लेदसंवाहन बढ़ता है। शरीरस्थ आमस्वरूप क्लेद निर्हरण होने से स्त्रोतसों की विशेष शुध्दि होती है। नव धातु निर्माण होने की प्रक्रिया में सरलता होती है।
यह कार्मुकता के कारण गोक्षुर-पुनर्नवा मूत्रल क्लेदनिर्हरक तथा शोथघ्न कार्य करनेवाले वनस्पति में श्रेष्ठ माने जाते है।
चंद्रप्रभा औषधियोग मूत्रवहसंस्थान व्याधि में उपयुक्त है। उशीरासव मूत्र की जलन – (पित्तप्रकोपजन्य) अवस्था में उपयुक्त है।
उपरोक्त वर्णन से यह तय है कि जहाँ पर आधुनिक चिकित्सापध्दति मूत्रवह संस्थान पर पर्याप्त उपयुक्त नहीं है उस स्थिती में आयुर्वेद तथा पंचकर्म चिकित्सा अधिक लाभदायी है।