पुरुषों में पाया जाने वाला प्रोस्टेट विकार आज सामान्य-सी बात हो गई है। प्रोस्टेटाइटिस, प्रोस्टेट ग्रंथि की वृद्धि व प्रोस्टेट कैंसर जैसी समस्याएं पुरुषों की बढ़ती आयु में पाई जाती हैं। इसके अलावा प्रोस्टेट विद्रधि (Abscess) व प्रोस्टेटिक पथरी (Calculus) भी पुरुषों को होने वाले रोग हैं। समय रहते ही इन विकारों की जांच कर चिकित्सा करना आवश्यक है, अन्यथा धीरे-धीरे यह समस्याएं बढ़कर घातक रूप धारण कर लेती हैं। अतः समझदारी इसी में है कि रोग के असाध्य स्थिति में पहुंचने से पहले ही उस पर अंकुश लगा दिया जाए।

संरचना व कार्य

पौरुष ग्रंथि अर्थात् प्रोस्टेट ग्लैंड (Prostate Gland) पुरुष जननेंद्रिय की एक महत्वपूर्ण रचना है। प्रोस्टेट नामक यह ग्रंथि पुरुषों में मूत्राशय (Urinary Bladder) के अग्र सिरे पर मूत्रमार्ग के ठीक पास स्थित रहकर उसे चारों ओर से घेरे रहती है। यह एक मध्य (Median) व 2 पाश्र्व (Lateral) खंडों (Lobes) से बनी त्रिखंड आकार की ग्रंथि है, जो वाहिनियों द्वारा मूत्रमार्ग के अगले हिस्से में जाकर खुलती है। यह रचना ग्रंथि ऊतक (Glandular Tissue) को घेरे हुए मांससूत्रों से बनी है तथा तंतुपेशीय ऊतक (Fibrous Tissue) के कैप्सूल से ढंकी हुई है। इस ग्रंथि से एक पतला क्षारीय तरल स्रावित होता रहता है, जो वीर्य की मात्रा बढ़ाने के काम आता है। प्रोस्टेट के स्राव में कैल्शियम, साइट्रिक एसिड, एसिड फोस्फेटेज, एलब्युमिन और प्रोस्टेटिक स्पेसिफिक एन्टीजन (PSA) बहुतायत में होते हैं। वीर्य का दुधियापन प्रोस्टेट के स्राव के कारण ही होता है। प्रोस्टेट के स्राव में जिंक भी बहुत अधिक होता है। यह संक्रमणरोधी है और जीवाणुओं के संक्रमण से लड़ने में प्रोस्टेट की मदद करता है। प्रोस्टेटिक स्पेसिफिक एन्टीजन (पी.एस.ए.) एंजाइम वीर्य को जमा कर गाढ़ा (Gel) बनाए रखता है और गर्भाशय की ग्रीवा से चिपका देता है। वीर्य स्खलन के समय शुक्राणु इसी पौरुष ग्रंथि से स्खलित होने वाले तरल द्रव के साथ आगे की ओर बढ़ते हैं। पौरुष ग्रंथि का यही तरल स्राव व मूत्रमार्ग की श्लैष्मिक झिल्ली को नम व चिकना बनाए रखता है।

यह आकार में एक कठिन (ठोस) ग्रंथि है। जो मूत्राशय के पास स्थित होती है। शिशु जन्म के समय प्रोस्टेट नामक यह ग्रंथि मटर के दाने के समान रहती है, जो किशोरावस्था से लेकर वयस्क बनने तक बढ़कर अखरोट के बराबर बन जाती है। एक स्वस्थ पुरुष में इस ग्रंथि का औसतन वजन 20 ग्राम के लगभग रहता है। इसकी लंबाई 3 से.मी., चैड़ाई 4 से.मी. तथा गहराई 2 से.मी. होती है।

बढ़ती आयु प्रमुख कारण

प्रोस्टेट ग्रंथि युवावस्था में पूरी तरह से स्वस्थ एवं सक्रिय रहती है, लेकिन उम्र बढ़ने के साथ यह परेशानियों का कारण बन जाती है। इनमें एक परेशानी प्रोस्टेट ग्रंथि के आकार में वृद्धि है। इसमें प्रायः प्रोस्टेट ग्रंथि का मध्य खंड प्रभावित होता है। उम्र के साथ प्रोस्टेट ग्रंथि में वृद्धि पुरुषों की अत्यंत सामान्य समस्या है, जिसे कई लोग अनदेखा करते हैं, जिसकी परिणति कई बार खतरनाक हो सकती है।

प्रोस्टेट ग्रंथि की वृद्धि 2 रूपों में देखी जाती है। एक बिनाइन प्रोस्टेटिक हाइपरप्लैसिया (BPH) और दूसरी पौरुष ग्रंथि की वृद्धि कैंसर प्रकार की होती है। बिनाइन प्रोस्टेटिक हाइपरप्लैसिया में प्रोस्टेट ग्रंथि के आकार में वृद्धि के वास्तविक कारण का अभी तक स्पष्ट रूप से पता नहीं चला है, लेकिन समझा जाता है कि उम्र बढ़ने के कारण होने वाले हार्मोन संबंधी परिवर्तन के कारण इसमें वृद्धि होती है। मुख्यतः टेस्टेस्टेरॉन हार्मोन कम होने व ईस्ट्रोजन बढ़ने से यह समस्या होती है। आरंभ में प्रोस्टेट ग्रंथि अखरोट के आकार की होती है, लेकिन 40 वर्ष की उम्र में यह खुमानी (एप्रिकोट) के बराबर हो जाती है।

एक अनुमान के अनुसार इस विकार के कारण हमारे देश में तकरीबन 20 से 30 प्रतिशत लोगों को ऑपरेशन कराने की जरूरत पड़ती है। 30-40 वर्ष से नीचे की आयु में प्रोस्टेट वृद्धि की समस्या कम ही देखी जाती है। आम तौर पर यह समस्या 40-50 साल की उम्र के बाद ही आरंभ होती है। 60 साल की उम्र वाले करीब 60 प्रतिशत लोग इस समस्या से ग्रस्त रहते हैं। इस ग्रंथि में वृद्धि के कारण पुरुषों की यौन क्षमता एवं यौन सक्रियता पर प्रभाव नहीं पड़ता है। प्रारंभ में पुरुष की काम-शक्ति कुछ बढ़ जाती है, पर जब ग्रंथि बड़ी होती है, तब काम-शक्ति लुप्त होने लगती है। इसका आकार बढ़ने से मूत्रप्रसेक (Urethra) एवं मूत्राशय (Bladder) पर दबाव पड़ता है, जिससे मूत्र त्यागने में दिक्कत होती है और कई बार मूत्र आना ही बंद हो जाता है।

लक्षण – रोग की शुरुआत में मूत्रत्याग में कठिनाई होती है। विशेषकर मूत्रक्रिया के आरंभ में अधिक बल प्रयोग, सहायक होने की अपेक्षा अवरोधक अधिक होता है अर्थात् रोगी के जोर लगाने पर मूत्र त्याग नहीं होता, परंतु आराम से उदर को ढीला छोड़ने से मूत्र आता है। यदि रोगी धैर्य के साथ उदर की पेशियों के शिथिल होने की प्रतीक्षा करे तो मूत्र आने लगता है। अत्यधिक मूत्र प्रवाहण से आंत्रवृद्धि या अर्श भी हो सकते हैं। प्रोस्टेट ग्रंथि के बढ़ने पर पहले रात को फिर दिन में मूत्र की हाजत बार-बार होती है। इस रोग में मूत्र की धार निर्बल हो जाती है व आगे की ओर दूर न पड़कर नीचे की ओर (Perpendicular) पड़ती है। मूत्र की धार बीच-बीच में टूटकर फिर शुरू होती है। मूत्र त्याग के अंत में तो मूत्र बूंद-बूंद कर आता रहता है। इस प्रकार मूत्रत्याग करने में पुरुष को पर्याप्त समय लगता है। रात को मूत्र त्यागने के लिए कई बार उठने, मूत्र त्यागने के बाद भी मूत्राशय खाली नहीं होता और बचा हुआ मूत्र (Residual Urine) अधिक होने से बार-बार मूत्रत्याग की प्रवृत्ति होती है। गंभीर अवस्था में मूत्र के साथ खून भी आ सकता है। प्रोस्टेट ग्रंथि में वृद्धि के कारण मरीज पूरा मूत्र नहीं निकाल पाता और मूत्राशय में कुछ मूत्र रह जाता है, जिससे बार-बार संक्रमित हो जाने का खतरा रहता हैं। मूत्राशय में बचे मूत्र के संक्रमित हो जाने का असर गुर्दे पर पड़ता है। ऐसी अवस्था में मरीज का जल्द से जल्द इलाज किया जाना आवश्यक होता है।

आयुर्वेद का मत

आयुर्वेदानुसार गुद एवं मूत्राशय के मध्य में अपान वायु अष्ठीला (पत्थर के समान अर्थात् कठोर, ऊपर को उठी हुई ग्रंथि) को उत्पन्न करती है। इसे ही पौरुष ग्रंथि या मूत्राष्ठीला कहते हैं। इससे मल, मूत्र एवं वायु का अवरोध होकर आध्मान व बस्ति में तीव्र पीड़ा होती है। चरक के अनुसार वातदोष के कारण अष्ठीला में आध्मान, तीव्र वेदना इत्यादि लक्षण होते हैं। पौरुष ग्रंथि वृद्धि में भी ऐसे ही लक्षण उत्पन्न होते हैं। डल्हण ने इस रोग का कारण रक्त, वात एवं कफ की विकृति माना है।

प्रोस्टेटाइटिस

पौरुष ग्रंथि में होने वाली शोथ (सूजन) को प्रोस्टेटाइटिस (prostetitis) कहते हैं। यह शोथ तब उत्पन्न होती है, जब मूत्र मार्ग के रास्ते कोई रोगकारक बैक्टीरिया रक्त के द्वारा पौरुष ग्रंथि तक पहुंचकर उसमें प्रदाह पैदा कर देते है।

एक अनुमान के अनुसार 50 वर्ष से अधिक आयु के आधे से अधिक पुरुष पौरुष ग्रंथि के शोथ अर्थात् प्रोस्टेट की समस्या से ग्रस्त पाए जाते हैं। पौरुष ग्रंथि में शोथ (प्रोस्टेटाइटिस) 2 रूपों में उत्पन्न होता है, एक तीव्र और दूसरी जीर्ण। तीव्र प्रकार की पौरुष ग्रंथि के लिए आमतौर पर कई तरह के यौन संक्रामक रोग तथा जीर्णकालीन पौरुष ग्रंथि शोथ के लिए अन्य तरह के कारण जिम्मेदार रहते हैं। दोनों प्रकार के शोथ में शुक्राशय (Seminal Vesicle) संक्रमित होता है। जब प्रोस्टेटिक यूरेथ्रा में इन्फेक्शन होता है तब 3 प्रकार की विकृति पायी जाती है – पोस्टीरियर यूरेथ्राइटिस (Postetior Urethritis), प्रोस्टेटाइटिस (prostetitis) व सेमिनल वेसीकुलाइटिस (Seminal Vesiculitis)।

शोथ के लक्षण – ठंड लगकर बुखार आना, शरीर में तीव्र पीड़ा मुख्यतः पीठ में दर्द, बार-बार मूत्र त्याग के लिए जाना, पेशाब करते समय दर्द होना, पुरुष की जनन ग्रंथियों में सूजन आना, पीठ के निचले हिस्से और मलद्वार के आसपास दर्द व भारीपन बना रहना, जननेन्द्रिय से पानी जैसा स्राव रिसते रहना, वीर्य स्खलन के समय दर्द होना, वीर्य में खून मिश्रित होकर आना, मल त्याग के समय पीड़ा, बैठने में कष्ट, शीघ्र स्खलन तक होने लगना आदि पौरुष ग्रंथि शोथ के कुछ मुख्य लक्षण माने गए हैं।

जीर्ण प्रोस्टेट ग्रंथि शोथ में गुदद्वार में हल्का-हल्का दर्द होता है, जो कुर्सी पर बैठने से बढ़ता है। इसमें कमर का दर्द ज्यादा होता है, जो कि पैरों की तरफ जाता है। ऐसी स्थिति में कई रुग्णों को लम्बेगो (Lumbago) फिजियोथेरेपी दी जाती है, जबकि उन्हें कमर दर्द प्रोस्टेटाइटिस के कारण होता है। इस अवस्था में रोगी की गुदा-जांच करने पर प्रोस्टेट ग्रंथि में वेदना (Tender Prostate), मूत्र जांच व मूत्र मार्ग से निकलने वाले स्राव की जांच से संक्रमण के प्रकार का पता चल जाता है। प्रोस्टेटाइटिस के रोगी के प्रारंभ के मूत्र में प्रोस्टेटिक थ्रेड (Prostatic Thread) दिखता है। इसी मूत्र को कल्चर टेस्ट के लिए भेजा जाता है।

संक्रमणजन्य उत्पन्न होने वाले प्रोस्टेटाइटिस के लिए तो अब अनेक प्रभावशाली एंटीबायोटिक दवाएं उपलब्ध हो चुकी हैं। अधिक पानी का सेवन पौरुष ग्रंथि को संक्रमण से बचाए रखने में सहायक पाया गया है। मद्यपान व मैथुन कर्म को 6 सप्ताह के लिए वर्ज्य बताया गया है। प्रोस्टेटाइटिस के उपद्रवस्वरूप शीघ्र स्खलन व नपुंसकता भी हो सकती है।

पौरुष ग्रंथि का कैंसर

दुनिया भर में फेफड़ों के कैंसर के बाद दूसरा सबसे घातक कैंसर पौरुष ग्रंथि का ही माना गया है। हर वर्ष पौरुष ग्रंथि का यह कैंसर डेढ़ लाख से अधिक पुरुषों की असमय मृत्यु का कारण बन जाता है। पौरुष ग्रंथि के कैंसर के अधिकतर मामले 55 वर्ष की आयु से ऊपर के पुरुषों में ही देखे जाते हैं। 50 से 60 वर्ष की आयु के पुरुषों में 10 से 30 प्रतिशत तक पौरुष ग्रंथि का कैंसर पाया जाता है। 70 से 80 वर्ष की आयु के पुरुषों के बीच ऐसे मामलों की संख्या बढ़कर 50 से 70 प्रतिशत तक हो जाती है।

पौरुष ग्रंथि का कैंसर एक Malignant Tumour है। प्रायः यह धीरे बढ़ता है और कई वर्षों तक अपने दायरे में ही सीमित रहता है। इस अवधि में इससे रोगी को कोई विशेष लक्षण या बाहरी संकेत नहीं होते हैं। लेकिन पौरुष ग्रंथि के सभी कैंसर के लक्षण एक जैसे नहीं होते हैं। कुछ आक्रामक प्रजाति के कैंसर बड़ी तेजी से फैलकर रोगी के जीवन को छोटा और कष्टप्रद बना देते है। जब कैंसर बढ़ने लगता है तो कैंसर कोशिकाएं प्रोस्टेट से बाहर निकलकर आसपास के ऊतकों, अंगों और लसिका पर्वों में अपना विस्तार करने लगती हैं। प्रोस्टेट ग्रंथि के स्ंजमतंस स्वइम में कैंसर हो, तो मूत्र स्रोतस् Urethra, मूत्राशय के निम्न द्वार Sphincter तथा पीछे Rectum में भी यह रोग प्रसरण कर जाता है। इसका दूरस्थ प्रभाव प्रायः फेफडे़, यकृत और अस्थि में होता है। चिकित्साशास्त्रियों के अनुससार 40 वर्ष की उम्र के बाद इस कैंसर के लिए हर व्यक्ति की नियमित अनुवीक्षण जांच (Screening Test) होनी चाहिए।

कारण – पौरुष ग्रंथि कैंसर का कारण अभी तक अज्ञात है और इसका प्रोस्टेट के सुदम अतिवर्धन (Benign Prostatic Hyperplasia) BPH से कोई संबंध नहीं है। इसके जोखिम घटक वृद्धावस्था, आनुवंशिक, हार्मोन और पर्यावरण घटक जैसे टॉक्सिन्स, रसायन, औद्योगिक अवशिष्ट हैं। इस कैंसर का खतरा उम्र बढ़ने के साथ बढ़ता जाता है। अतः इसका आक्रमण 40 वर्ष से पहले बहुत कम होता है, लेकिन 80 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों में प्रायः 50-80 प्रतिशत इस कैंसर के रोगी मिल जाते हैं। निदान के समय इस कैंसर के 80% से अधिक रोगियों की उम्र 65 वर्ष से अधिक होती है। प्रोस्टेट कैंसर के रोगी के परिवार के दूसरे सदस्यों में इस रोग का खतरा 2 से 3 गुना अधिक रहता है। लैंगिक संभोग से फैलने वाले संक्रमण भी प्रोस्टेट कैंसर का जोखिम 1.4 गुना बढ़ाते है। प्रोस्टेट कैंसर की उत्पत्ति और विकास में वसा का अत्यधिक सेवन व मोटापा भी भूमिका निभाते हैं। औद्योगिक अवशिष्ट और वातावरण में व्याप्त कुछ पदार्थ भी इस कैंसर की उत्पत्ति के कारक माने गये हैं। अभी तक यह सिद्ध नहीं हो सका है कि ज्यादा संभोग करने वाले पुरुषों को इस कैंसर के होने का खतरा अधिक रहता है।

लक्षण व विभिन्न प्रकार की जांच – इस व्याधि में गुदा परीक्षण (PR) करने पर प्रोस्टेट ग्रंथि कठोर, असामान्य और गिल्टीदार महसूस होती है। प्रोस्टेट मलाशय के ठीक आगे अवस्थित होती है। कालांतर में जब कैंसर बढ़ने लगता है तो मूत्र निस्सरण नली पर दबाव पड़ता है। फलस्वरूप मूत्र की धार पतली होने लगती है और मूत्र विसर्जन में तकलीफ होती है। रोगी को मूत्र त्यागते समय जलन या खून भी आ सकता है। यदि अर्बुद और अधिक बढ़ जाता है तो मूत्र के प्रवाह को पूरी तरह रोक देता है, जिससे असहनीय तथा तीव्र वेदना होती है। मूत्र का निकास रुक जाने के कारण मूत्राशय फूलकर बड़ा हो जाता है और तेज दर्द भी करता है। लेकिन ये लक्षण भी प्रोस्टेट कैंसर की पुष्टि नहीं करते हैं।

विकासशील अवस्था में कैंसर आसपास के ऊतकों और लसिकापर्वों (श्रोणि या Pelvis) में फैलता है। प्रोस्टेट कैंसर को शुरुआती अवस्था में निदान करने के लिए प्रोस्टेटिक स्पेसिफिक एंटीजन (PSA) और अंतरमलाशय (गुदा) अंगुली परिस्पर्श (Digital Rectal Examination) किए जाते हैं। गुदा परीक्षा करने से आगे की ओर विषमाकृति पत्थर की तरह कठोर ग्रंथि अनुभव होती है। X-Ray परीक्षा में Pelvic Bone में Density अधिक बढ़ी हुई दिखती है व Serumacid अधिक बढ़ जाता है।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया है कि जैसे-जैसे पुरुष की उम्र बढ़ती है उसका पी.एस.ए. बढ़ता है, भले उसे कैंसर न हुआ हो। चिकित्सक को पी.एस.ए. का विश्लेषण करते समय ध्यान रखना चाहिए कि रोगी की उम्र के हिसाब से पी.एस.ए. का सामान्य स्तर 0 से 2.5 छठे दशक में 0-4.5 और 70 वर्ष से बड़े पुरुषों में 0 से 6.5 होता है।

प्रोस्टेट कैंसर जीन 3 (PCA 3) तथा बायोप्सी जांच द्वारा कैंसर का निदान होने के बाद कई तरह के परीक्षण किये जाते हैं ताकि स्पष्ट तौर पर मालूम हो सके कि कैंसर शरीर में कहां-कहां फैल चुका है। इसके लिए रेडियोन्युक्लाइड अस्थि स्कैन, छाती का एक्सरे, सोनोग्राफी, मूत्राशयदर्शी जांच (Cystoscopy), एम.आर.आय. (MRI), सीटीस्कैन (CT scan) जांच की जाती है

चिकित्सा – आधुनिक चिकित्सा पद्धति में कुछ लाक्षणिक व हार्मोनल चिकित्सा से लाभ न होने पर प्रोस्टेट वृद्धि का एकमात्र उपाय आपरेशन करना होता है। आयुर्वेदिक पद्धति में प्रोस्टेट वृद्धि को कम करने के लिए औषधियों का सेवन कराया जाता है।

आयुर्वेद में बहुत सारी औषधियों का संशोधन इस व्याधि में किया गया है जैसे वरूण, गोखरू, पुनर्नवा तथा पंचकर्म चिकित्सा में संशोधित तेल तथा घृत के बस्ती एवं उत्तरबस्ती चिकित्सा से बढ़ी हुई पौरूष ग्रंथि का आकार कम होता है। ♦पित्त दोष के कारण प्रोस्टेट विकार होने पर पुनर्नवा, बारली, उशीर जैसी शीत गुणों वाली औषधि के प्रयोग से लाभ होता है। वात दोष के कारण प्रोस्टेट रोग में कांचनार, शलाबा मिश्री, गुग्गल, पुनर्नवा व गोक्षुर का भी प्रयोग कर सकते हैं। कफ दोष से उत्पन्न प्रोस्टेट व्याधि में अदरक, गुग्गल, इलायची व शिलाजीत का प्रयोग लाभकारी है।
♦प्रोस्टेट विकार के कारण उत्पन्न मूत्र संबंधी कष्ट के लिए गोक्षुर, वरुण, पुनर्नवा का प्रयोग हितकारी है।
♦पाषाण भेद के पत्ते पीसकर मट्ठे के साथ सेवन कराएं
♦एलादि चूर्ण 1-2 ग्राम मात्रा में तंडुलोदक अनुपान से दिन में दें।
♦वरुणादि क्वाथ, तृणपंचमूल क्वाथ, गोखरू काढ़ा व पुनर्नवाष्टक क्वाथ लाभकारी है।
♦कांचनार गुग्गल, चंद्रप्रभा वटी, गोक्षुरादि गुग्गुल एवं वृद्धिवाटिका वटी का प्रयोग भी लाभकारी है।
♦अत्यधिक वृद्धि की स्थिति में शल्यक्रिया की जाती है।
♦टमाटर का हर सब्जी में प्रयोग करने से लाभ होता है।
♦वरुण की छाल, सहस्रपर्णी, गोखरू, ईख की जड सहजन की छाल, कास की जड़, कुशामूल, मक्का के बाल, गजपीपल, चित्रक वच, चिरायता, अतीस जैसी जड़ी-बूटियों को 1 किलो पानी में उबालकर 200 ग्राम शेष रहने पर शिलाजीत 20 ग्राम व शीतल चीनी 10 ग्राम मिलाकर काढ़ा बनाकर 15-20ml सुबह-शाम सेवन करें।
♦कांचनार गुग्गुल 5gm, यवक क्षार 10gm, शतावरी चूर्ण 10gm, गोखरू चूर्ण 10gm, वरुण चूर्ण 10gm, शिलाजीत 5gm की 60 पुड़ियां बनाकर सुबह-शाम पुनर्नवासव 2 चम्मच के साथ सेवन करें।
♦शुद्ध शिलाजीत एवं शक्कर को दशमूल क्वाथ के साथ लेने से प्रोस्टेट वृद्धि जैसी अवस्थाओं में रुका हुआ मूत्र स्रावित हो जाता है।
♦यवक क्षार, छोटी इलायची का चूर्ण बनाकर दिन में 2-3 बार केले के साथ लेने पर मूत्र का रुक-रुककर निकलना शीघ्र ठीक हो जाता है। ऐसी अनेक आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियां चिकित्सक की देखरेख में ले सकते हैं। उपरोक्त में से 2-3 नुस्खे 6 माह तक लेने से लाभ होता है।

पंचकर्म

मूत्राघात की स्थिति में वातनाशक तैल जैसे बला तैल, महानारायण तैल नाभि के नीचे (बस्ति प्रदेश) अभ्यंग करने के पश्चात् स्वेदन किया जाता है। साथ ही वातघ्न क्वाथ जैसे दशमूल क्वाथ से परिषेचन तथा अवगाहन करने से लाभ होता है। इसके अलावा विरेचन व बस्ति कर्म भी उपयोगी हैं।

प्रोस्टेट ग्रंथि के स्थान पर प्रतिदिन 15 मिनट का गर्म-ठंडा सेंक करने से लाभ होता है। रोगी को मैथुन करने के लिए प्रेरित करें या पौरुष ग्रंथि का मर्दन करके (Prostatic Massage) उसकी लसिकामय शोथ (Oedema) को कम करें।

पथ्य : रोगी के लिए मट्ठा, दूध, पेठा, अनार, नारियल, लौकी, खीरा, आंवला, हरड़, चैलाई आदि का भोजन लाभकारी है। व्यायाम में रोज सुबह चलना, 45 मिनट चलना, प्राणायाम, सूर्यनमस्कार, कपालभाती, अश्विनी मुद्रा इस व्याधि में हितकारक होते है।

अपथ्य : भोजन में उड़द दाल, तिल, तले हुए पदार्थ, खटाई बंद कर देना चाहिए। इस व्याधि में चना, गवार जैसे अन्न कम मात्रा में लेना चाहिए। रात में चावल न खाएं, अधिक मात्रा में अखरोट, बादाम एवं खजूर हानिकारक होता है। दूध की मात्रा कम करने से भी इसमें लाभ होता है। मांसाहार वर्ज्य करना उत्तम है।

मूत्र, पुरीष, अपान वायु आदि अधारणीय वेगों को धारण करना व्याधि को बढ़ा सकता है। ज्यादा व्यायाम एवं परिश्रम नुकसानदायक है।

कठोर जगह पर लंबे समय तक बैठना टालें। धूम्रपान व मद्यपान का त्याग करें। मूत्र, भूख व प्यास का वेग लंबे समय तक धारण न करें।

डॉ. जी. एम. ममतानी
एम. डी. (आयुर्वेद पंचकर्म विक्षेषज्ञ)
238, गुरु हरिक्रिशन मार्ग, जरीपटका, नागपुर

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