चाचा दबे पाँव घर में आये और चिंताग्रस्त चेहरे से माताजी से कुछ पुछने लगे। जरा ध्यान देने पर समझ आया कि वे पेशाब में हो रही जलन से परेशान थे। माताजी ने अपना घरेलू इलाज बताया, नाभि में चुना लगाना और पानी भरपूर पीना। हालांकि यह तो विज्ञान की दृष्टि से उचित है क्योंकि चुना अल्कलाईन होता है जो बढ़ी हुई पेशाब की असेडिक स्थिती को नियंत्रण में लाता है पर जब बात स्त्रियों की आती है तो ऐसी स्थितियों में उन्हें खुलके सामने बात करने में हिचकिचाहट होती है और फिर परेशानी बढ़ती है। तो मैंने अपने तरफ से माताजी को उशीर (खस) के बारे में बताया और उन्हें बताने के लिये बोला क्योंकि उनकी तकलीफ चेहरे से साफ नजर आ रही थी। ऐसे परिस्थितियों में हम अपने घर में बहुत से इलाज कर सकते है जो प्रारंभिक रूप से सफल हो जाते है किंतु वैद्यों की सलाह लिया जाये तो अवश्य ही लाभ मिलने में सुलभता होती है।

इस परिस्थिती के बाद कुछ पुराने किस्से याद आ गये, हमारा गुडडु (उम्र-6 साल) दोपहर अपनी पेशाब की जगह में हाथ रखकर जोर जोर से रोने लगा, पहले तो देखकर ऐसा लगा कि उसे वहाँ पर कुछ लग गया है। पर पूछने पर पता चला कि उसे पेशाब में जलन हो रही है । अब ऐसी स्थिति में यह तो ध्यान आ गया कि मूत्रवह स्त्रोतस जिसे हम urinary tract से जानते है वहां विकृती हो गयी है और मूत्र की अम्लता बढ़ गयी है। दाह शांति के लिये उसे घर में गुलकंद था वह खाने को दिया उसके बाद पीने के लिये शीतल जल में खस का शरबत और शक्कर मिलाकर पीने को दिया और माताजी ने अपना उपाय किया। जरा सिर पर ठंडे पानी का परिषेक किया और पेशाब की जगह भी। थोड़ी देर बाद उसकी जलन कम हुई और वह शांत हो गया। बाद में पता चला कि खेलने की धुंध में उसने पानी भी प्रमाण से कम पिया था।

वैसे तो अपना मूत्रवह संस्थान किडनी, किडनी से निकलने वाली नलिकाएं, जहां पेशाब जमा होता है वह ब्लेडर और मूत्र बाहर निकलने वाली नलिका ऐसा बना होता है पर आयुर्वेद ने मूत्र की निर्मिती आंतो से ही शुरु होती है ऐसा उल्लेख किया है तो इन सब जगह होने वाली विभिन्न विकृतियों को मूत्रमार्ग की विकृती के अंतर्गत समझा जाता है। कभी इसमे सूजन हो जाये तो उसकी चिकित्सा अलग है जिसमें हम पस्थितीयोंनुसार विभिन्न औषधियाँ लाते है जैसे वरूण, गोक्षुर, पुनर्नवा जैसी वनस्पतियाँ ऐसी स्थिति में बहुत अच्छा काम करती है। कुछ वनस्पतियाँ अपने आस पास में ही होती है लेकिन हम उनसे परिचित नहीं रहते है… इसलिये उपयोग में नहीं लाते है। कभी कभी खासकर इन गर्मियों के दिनो में पूरे शरीर में जलन और साथ में पेशाब में भी दाह की अनुभुति की होगी, ऐसी स्थिती में तुलसी की एक प्रजाति जिसको हम सब्जा के नाम से जानते है उसे भिगोकर खाते है दोनों लक्षण एक साथ कम होते हुये नजर आते है। अक्सर इस सब्जा को हम फालूदा नामक शीतपेय में देखते हैं किंतु इस पेय में अन्य चीजें होती है तो हमें इसे अकेली सेवन करना उचित होगा जो इन स्थितियों मे फायदेमंद होगा।

कभी कभी पुरुषों के शिश्न में तीव्र वेदना और पैर मे दर्द होता है। शुरुवात में दर्द हल्का होता है किंतु कुछ दिनों बाद बढ़ा हुआ मालुम होता है। ऐसे स्थिति में सोनोग्राफी में गुर्दा (Kidney) में पथरी होने का प्रमाण मिलता है ऐसे परिस्थितियों में दर्द के अलावा परिस्थितीनुरुप विभिन्न लक्षण मिलते है। जैसे पेशाब में जलन, पेशाब का रुक रुक कर आना, कभी कभी उल्टी जैसा भी लगता है। भूख न लगना, दर्द के कारण काम में ध्यान न लगना, ऐसे समय रुग्ण की जाँच करने पर अलग अलग दवाईयाँ जो आयुर्वेद में वर्णित है वह देने पर उपशय मिलता है। ऐसी स्थिती में कुछ सामान्य रूप से उपयोग में लाये जाने वाली दवाइयों में पाषाणभेद, शतावरी, कुछ क्षार, पुनर्नवा, गोखरु, पर्णबीज जैसी औषधि वनस्पतियाँ आती है। खाने में पथ्यों की तहत हम मुंग युष, मुंग दाल का पानी, यव की पेया बनाके पिलाते हैं जो आहार के साथ साथ औषधियों का भी काम करते है।

ग्रीष्म याने धूपकाल (summer) में कड़ी धूप के कारण बहुत सी मुत्रवह संस्थान की परेशानियों से बचा जा सकता है। कुछ शरबत जो अक्सर ठंडी के ऋतु में मिलने वाले विभिन्न पदार्थों से हम बना कर रख सकते है और कड़ी धूप का महिना आने पर उपयोग में ला सकते हैं। जैसे आंवला सबको पता है, आंवलो को किस कर उससे रस निचोड़ ले और उसमे चीनी मिलाकर धूप में रख लें। उसका शरबत तैयार हो जायेगा यह हम हर रोज सुबह पीने के लिये उपयोग में ला सकते है। यह जो बाजार में कुछ preservative मिलाया हुआ ज्युस हम लेते है उससे कई गुना ज्यादा लाभदायी है। जिनको डायबिटीज है वे या तो ताजा ज्युस ले या उसी रस को गाढ़ा करके फ्रिज में रख ले और आवश्यकतानुसार पी सकते है।

लाल अंबाडी के फूल जो अक्सर चटनी बनाकर खाने में स्वादिष्ट लगते हैं। उन फुलों को सुखाकर भी उसके पावडर से शरबत बना सकते है जो ऐसे मूत्रगत कठिन परिस्थितियों में काम आता है।

कोकम, खस का शरबत किनको पता नहीं यह पेशाब के मार्गो के लिये अत्यंत हितकर है। ऐसे ही इसमें पुदीना का शरबत, चटनी जिसमें तीखी चीजे मिलाई न हो बड़े काम में आते है।

सलाद के लिये पर्णबीज जिसे आम भाषा में पथ्थर चुर नाम से भी जानते है मुँह का स्वाद भी बढ़ाता है। ऐसे ही हरी पत्ती वाले शाक जिनको पथरी की बिमारी नहीं है लेकिन मूत्र साफ नहीं होता उनके लिये लाभदायी साबित होती है।

कभी कभी मूत्रमार्ग में हमेशा रहने वाली सूजन से गांठ पकड़ लेती हैं, या फिर किसी अन्य वजह से गाँठ होती है ऐसी स्थिति में कांचनार, उदुम्बर, वरुण, पुनर्नवा जैसी औषधियाँ अच्छी काम को आती है। मूत्र मार्ग पर बाहय स्नेहन (तेल सें हल्का मसाज) व स्वेदन इनसे दर्द से काफी राहत मिलती है। हालांकि सभी रोगों की चिकित्सा आयुर्वेद के सिद्धांतों से करते हैं। यह प्रारंभिक प्रयास यह है कि कुछ बातों का ज्ञान सबको हो जाये तो अत्याधिक पीड़ा से गुजरना नहीं पड़ेगा । जब सिर्फ औषधों से राहत मिलने़ में दिक्कत जाती है या जल्दी आराम मिलने की अपेक्षा से हम पंचकर्म चिकित्सा को प्राधान्य देते हैं। जिसमे स्नेहन, स्वेदन, बस्ति, धारा, विरेचन, जरूरत पड़ने पर वमन और उत्तर बस्ती (पेशाब के मार्ग से दवाई देना) भी करनी पड़ती है जिसमे तेल और औषधियाँ जो इन रोगो में काम में आती है इनका उपयोग करते है।

कभी कभी मूत्र मार्ग की नलिका का आकार कम हो जाता है। ऐसी स्थिति में शतावरी, आमलकी, यष्टीमधु, गोक्षूर आदि वनस्पतीयों से सिद्ध तेल का उत्तर बस्ती के लिये उपयोग करते हैं।

ऐसी स्थिति में बहुत बार ऑपरेशन करने की नौबत नहीं आती है और रूग्ण का दर्द और खर्च दोनो की बचत होती है। लेकिन कई बार जब रूग्ण अत्याधिक समय दौड़ने के बाद आता है और तीव्र वेदना में आता है तो शल्यक्रिया करना उचित होता है। 

आयुर्वेद में मूत्र मार्गो की भी चिकित्सा करनी है तो भी पेट की अवस्था जानना और उसका इलाज करना बहुत बार सामान्य चिकित्सा उपक्रम का भाग होता है तब मूत्रमार्ग की चिकित्सा में लाभ होता है। मूत्र मार्ग की उत्पत्ती का संबंध पक्वाशय से है तो इसका विचार प्रारंभ में ही करना पड़ता है। पेट के आंतो की विकृति बहुत बार मुत्र की विकृति का कारण बन जाती है। ऐसी स्थिती में जब जाँचे नार्मल आती है लेकिन लक्षणों में मूत्रमार्गों की विकृति देखने मिलती है ऐसी स्थिती में मशीनों की रिपोर्ट से लक्षणों की तरफ ध्यान देना जरूरी होता है। यह बातें सामान्य जनता को ध्यान में नहीं आती किंतु वैद्यों को समझ आता है और ऐसी स्थिती में चिकित्सा मूल खराब स्थान की होती है तब कभी-कभी रुग्णों के मन में संदेह निर्माण होता है क्योंकि आज google का जमाना है तो कृपया ऐसी बातें अभ्यास से ही आती है और वह चिकित्सा से उचित लाभ भी होता है।

मूत्रगत मार्गों की व्याधियों में एक हिस्सा स्थानिक स्वच्छता भी अहम है और बाहय जननांगो की स्वच्छता रखने से बहुत से विकारों से हम दूर रह सकते है। एक आखरी बात यौन-क्रिया संबधी बहुत सी बातें मूत्र विकारों के साथ होती है। इसका इलाज भी साथ में ही करने से इच्छित फल मिलता है। कभी कभी मूत्र के मार्गो से धातु का निकलना शुरू होता है ऐसी स्थिति में शतावरी, गोक्षुर, आमलकी यह औषधियाँ बहुत काम में आती है। शिथिलता में विदारी, अश्वगंधा, शिलाजीत, अर्जुन, वंगभस्म जैसी औषधियाँ उपयुक्त होती है जो कि वैद्यों की सलाह से उचित होता है।

इस तरह सभी मूत्र मार्गो को कुछ प्रारंभिक तौर पर हम अच्छा कर सकते है और अपने जीवन को सुखकर कर सकते है।

वैद्य प्रशांत उमाटे
दत्ता मेघे आयुर्वेदिक कॉलेज, नागपुर

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