मानसिक रोग सिर्फ मन अर्थात् Psychiatric Disorders नहीं हैं बल्कि मन से संबंध रखने वाले सारे विकारों को ही मानसिक रोग माना गया। आयुर्वेद में मन को व्याधि के तथा व्याधियों का प्रकार माना है। आयुर्वेदानुसार मन की दुष्टि से रस धातु तथा स्रोतस दोनों दुष्ट होते हैं । आचार्य चरक रसवह स्रोतस दुष्टि हेतु में भी चिंता का वर्णन करते हैं और रसवह स्रोतस की दुष्टि सारे रोगों का कारण है इसलिए मानसिक विकारों में शोधन अत्यंत आवश्यक है। पंचशोधन अर्थात वमन, विरेचन,बस्ति, नस्य, रक्तमोक्षण जिसे पंचकर्म कहा जाता है। मानसिक रोगों में उक्त पंचकर्म के अलावा मूर्ध तैल शिरस्तर्पण शिरोस्नेहन भी प्रभावी कर्म है।
वमन
निद्रा और आलस्य ये भिन्न-भिन्न कफज व्याधियां है। कफ दोष की श्रेष्ठ शोधन चिकित्सा बताते हुए आचार्य वाग्भट ने वमन का वर्णन किया है, वमन कफ दोष में अत्यंत प्रभावी है। इन विकारों में वमनार्थ मदनफल, पिप्पली का फांट तथा यष्टीमधु क्वाथ वमनोपग रूप से इस्तेमाल किया जाता है परन्तु चरक द्वारा वर्णित घृत (उन्माद अपस्मार अध्याय में) कल्याणक, मधुकल्याणक, मधुपैशाचिक स्नेह पानार्थ दिये जाते हैं। इनकी मात्रा 25 उस से शुरू करके 250 उस मात्रा में दिया जाता है फिर स्नेह विश्राम करके रूग्ण को दही चावल खिलाकर अगले दिन वमन करवाया जाता है। वमन पश्चात शुद्धि के अनुरूप संसर्जनक्रम पालन कराएं इससे रूग्ण के कफ का आवरण दूर होकर अतिनिद्रा, आलस्य कम होता है।
विरेचन
क्रोध, शोक, भय इत्यादि मानसिक अवस्थाएं हैं। क्रोध पित्त तथा रक्त का प्रकोप करता है जिसके कारण आजकल इनकी घटनाएं अधिक होने लगी है, विरेचन यह प्रक्रिया पित्त प्रकोप पर अत्यंत लाभकारी है पित्त प्रकोप जन्य रोग में (Anxiety Irritablity ) किया गया विरेचन इन लक्षणों को कम करती है विरेचन से प्रकुपित पित्त का शोधन होता है और मानसिक चिंता, क्रोध इत्यादि लक्षण कम होता हैं। रोगी में विरेचनार्थ मुख्यतया स्नेह पानार्थ ब्राम्ही, कल्याणघृत, महाकल्याणकघृत तथा महापैशाचित घृत का सेवन करायें जिसको 50 उस मात्रा से बढ़ाते हुए 250 उस तक दें तथा 3 दिन स्नेह विश्राम कराकर टमाटर का सूप, सांभर चावल खिलाकर अगले दिन विरेचन कराएं। विरेचनार्थ त्रिवृत लेह, अभयादि, इच्छाभेदी रस दिन में दस बजे मंत्रोच्चारण के साथ खिलाएं। मात्रा रोगी के अनुरूप रखें।
बस्ति
विषाद यह वातज मनोसंबंधी व्याधि है, तो इन में वात की श्रेष्ठ चिकित्सा बस्ति स्नेह बस्ति, अनुवासन बस्ति, मात्रा बस्ति का इस्तेमाल करने से लाभ होगा । बस्तियां इन विकारों में अत्यंत कारगर नहीं है परन्तु चरक सिद्धी स्थान में वर्णित यापन बस्तियां सभी प्रकार की चिंता, क्रोध, याददाश्त कमजोर हो जाना, लड़ाई करने की प्रवृति, अपस्मार (मिर्गी) में कार्यशील है। ये वस्तियां सिर्फ 240 ml से 300 ml तक ही प्रदान करें। यह दुष्टवात का अनुलोमन कर शरीर में मुख्यतया हृदय जो कि मन का स्थान बताया गया है, उसे बल देती है और लक्षणों में कमी आती है।
रक्तमोक्षण
सुश्रुत ने कुष्ठ रोगियों (त्वचा रोग) में रक्तमोक्षण के लिए कहा है। त्वचा विकार के हेतु स्वरूप चिंता, शोक, भय इत्यादि हेतुओं का वर्णन है। संप्राप्ति भंग के लिए कारणो को दूर करना अत्यंत आवश्यक है रक्तमोक्षण करने हेतु भी स्नेहपान (3 से 7 दिन) कराकर उसका सिरामोक्षण करें यह गुस्से की अवस्थाओं में लाभकारी देखा गया है।
नस्य
मानसिक विकारों की अवस्था जिनमें रूग्ण को अत्यधिक नींद आती है उनमें तीक्ष्ण धूम, नस्य, वचा चूर्ण तथा मनः शील नस्य से उचित मात्रा में नस्य कराएं। क्रोध आदि अवस्था में ब्राम्हीघृत और पंचगव्यघृत का नस्य कराएं। अपस्मार में भी ब्राम्ही, पंचगव्य घृत कारगर होते है।
प्रधमन नस्य पिप्पली चूर्ण भी मानसिक विकारों में काफी लाभकारी है। इनमें नस्यों की मात्रा रूग्णानुसार और प्रकृति अनुसार करनी चाहिए।
मूर्ध तैल शिरस्तर्पण
मूर्ध अर्थात सिर पर तैल को विशिष्ट समय तक धारण करना मूर्ध तैल कहलाता है। आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से सिर में तैल लगाने से स्थानिक लाभ के साथ-साथ बुद्धि, मन एवं इन्द्रियों पर भी उसका अनुकूल प्रभाव पड़ता है। शास्त्रो में मूर्धतैल के चार प्रकार बताये गए है- 1. शिरोभ्यंग2.शिरोपिचु 3.शिरःसेक या शिरोधारा. 4. शिरोबस्ति
शिरोभ्यंग
सिर पर तैल की मालिश करना शिरोभ्यंग कहलाता है। अभ्यंग में घर्षण जितना अधिक हो उतना ही अच्छा रहता है। आवश्यकता के अनुसार अभ्यंग का स्वरूप निर्धारित करना चाहिए। हस्ततल से घर्षण, अंगुलियों से संचालन या थपकी देते हुए अभ्यंग करना चाहिए। मानस रोगियों में शिरोभ्यंग हेतु मेध्य प्रभावकारी तैलों जैसे ब्राम्ही तैल, हिमसागर तैल, जटामांसी तैल, ज्योतिष्मती तैल आदि का प्रयोग करना चाहिए। इन तैलों की सुगंध मन को भानेवाली होनी चाहिए।
इससे सिर के बाल स्वस्थ, सुंदर व काले घने होते हैं। सिर (मस्तिष्क) सभी ज्ञानेंद्रियों, कर्मेंद्रियों व उभयात्मक मन का मूल स्थान है, इसलिए इसे प्रधान मर्म कहा गया है। अतःइसका अभ्यंग करने से निश्चित रूप से मस्तिष्क का पोषण होकर शरीर का संचालन सम्यक रीति से होता है। मस्तिष्क संपूर्ण शरीर का संचालक (रिमोट कंट्रोल) होने के कारण नित्य प्रतिदिन तैलादि से शिरोभ्यंग करने पर सिर संबंधी विकारों से रक्षा होती है। अनिद्रा रोगी में इसके प्रयोग करने से सुखपूर्वक निद्रा आती है।
शिरो पिचु
कपास का गोला औषधियुक्त तैल में डुबाकर सिर पर रखना ही पिचु है। मंद बुद्धि, सहज मस्तिष्क विकृति, चित्तोद्वेग, योषापस्मार आदि व्याधियों में इससे अच्छा लाभ मिलता है। इसके अलावा रोग के अनुसार ब्राम्ही तैल, मधुयष्टी तैल, बला तैल, हिम सागर तैल, महा नारायण तैल, श्री गोपाल तैल, निम्ब तैल, दशमूल तैल इत्यादि का प्रयोग करना चाहिए।
शिरोधारा
सिर पर विशेषतः कपाल प्रदेश पर औषधि सिद्ध क्काथ, शीतल जल, दूध, छाछ, इक्षुरस, घी, तैल इत्यादि से विशिष्ट प्रकार से 12 अंगुली की दूरी से अखंड रूप से धारा छोड़ना शिरःसेक/ शिरोधारा/परिषेक कहलाता हैं। चरक और सुश्रुत ने भी भिन्न-भिन्न शिरोरोगों में शिर पर परिषेक करने का विधान किया है। मानस रोगियों को धारा की अपेक्षा बूँद-बूँद टपकाते हुए उस पर ध्यान केन्द्रित करने को कहें इससे शिरोस्नेहन के साथ-साथ ध्यान का भी लाभ मिलता है। चितोद्वेग के रूग्णों में धारा पतली रहे तो ज्यादा अच्छा है
मानसिक रोगों में ब्राम्ही तैल, ज्योतिष्मती तैल का प्रयोग किया जाता है।
मानस रोगों के साथ-साथ उच्चरक्तचाप, हृद्रोग, मानसिक दोष, पक्षाघात, अर्दित, मिर्गी, मानसिक तनाव, अवसाद, निद्राल्पता आदि रोगों में शिरोधारा के उत्तम परिणाम मिलते हैं। इसके अलावा शिरोधारा से वाणी और मन की स्थिरता होती है। शरीर का बल बढ़ता है, भोजन में रूचि लगती है। स्वर माधुर्ययुक्त होता है, त्वचा कोमल होती है। आंखें तिमिरादि रोग में लाभ होता है। नींद अच्छी आती है और आयुष्य बढ़ता है।
शिरोबस्ति
शिरो स्नेहन की सर्वाधिक प्रतिष्ठित विधि है शिरोबस्ति। इसमें चमड़े की विशिष्ट टोपी सिर पर रखकर उसमें औषधियुक्त क्वाथ या तैल कुछ समय तक रखा जाता है। मानसिक रोगों में उपयोगी पाया गया है। इसकी अवधि 11से 21 दिन व समय 50 मिनट का होता है।
इस प्रकार मानसिक रोगों में औषधि चिकित्सा के साथ-साथ पंचकर्म प्रभावी उपचार है। विशेषतः शिरोधारा, शिरोबस्ति का प्रयोग अत्यंत लाभकारी सिद्ध होते है।
स्वास्थ्य वाटिका डेस्क से…..