वर्तमान परिस्थिति (इस काल में) सभी लोग कुछ ना कुछ मानसिक रोगों से ग्रस्त है क्योंकि दैनंदिन जीवन में मानसिक तनाव और कार्य से सभी व्यस्त रहते है। तीनों काल में त्रिवर्ग के अर्थात बालक, प्रौढ़ (तरूण) और वृद्ध सभी व्यक्तियों में अपनी व्यस्त जीवनशैली की वजह से मानसिक तनाव (Stress), ईष्र्या, भय, क्रोध, चिंता, शोक आदि और सोच की नकारात्मक बदलाव की वजह से मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति ठीक (प्राकृत) ढ़ंग से कार्य नहीं करती। इन सभी बातों का जवाब आयुर्वेद शास्त्र में मिलता है।

मानसरोग के कारण- रज और तम। यह मन के दो दोष है और सत्व, रज, तम, यह मन के गुण है। वात, पित्त और कफ यह शरीर दोष है।

रोगस्तु दोषवैषम्यम् दोषसाम्यम् अरोगता। (अ. ह. 1)अर्थात शारीरिक वातादि दोष जब सम अवस्था में रहते है तब मनुष्य निरोगी (स्वस्थ) रहता है और जब यह विषम हो जाते है तब रोग उत्पन्न होते है। वैसे ही मन जब रज और तम दोष से युक्त होता है तब मन की स्थिति बदलकर मानस विकार का रूप लेती है। मन का सत्व गुण जब बढ़ता है तब रज और तम दोष को दबाकर मनपर विजय प्राप्त करता है। जब मन सत्वशिक (सात्विक) है तब बुद्धि सही निर्णय लेती है और उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति भी अच्छी रहती है।

मानसिक शक्ति:- धी, धृतिऔर स्मृति यह मन की शक्तियां है। 1. धी अर्थात बुद्धि, 2. धृति अर्थात धैर्य (धारण शक्ति, सहन शक्ति), 3. स्मृति अर्थात स्मरणशक्ति यह तीनों मन का बल बढ़ाते है, जिससे आयु की वृद्धि होती है।

मानसरोग चिकित्सा:- आयुर्वेद में शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहने के लिए अनेक सिद्धांत और चिकित्साओं का वर्णन किया है, जिसमें सत्वावजय चिकित्सा वर्णित है।

सत्वसंज्ञकम् मनः।
अर्थात ’सत्व’ शब्द ’मन’ का बोधक है। मनोनिग्रह से अर्थात मन को अपने वश में करने से मानसिक विकार दूर कर सकते है। मन पर विजय प्राप्त करना जिससे मन में सात्विक विचार आते है तब मन अपने बुद्धि द्वारा गलत निर्णय नहीं लेता है और मानसिक विकार उत्पन्न नहीं होते।मानसिक विकार दूर करने के दो उपाय है।

1. मनोनिग्रह (संयम) और 2. योग (चित्तवृति निरोध)। आयुर्वेद ने इनका समावेश सत्वावजय चिकित्सा में किया है। योग अर्थात ’योगचित्तवृत्ति निरोधः।’

मन में सत्वगुण बढ़ने से बुरे विचार और कर्म से चित्त (मन) को दूर रखा जा सकता है, अर्थात बुरे खयाल नहीं आते। ज्ञानोंद्रियों के विषयों को भी संयमित रखता है, सही (सत्य) मार्ग बताता है और मन को बल देता है, जिसस शारीरिक एवं मानसिक बल भी प्राप्त होता है। मन को बलवान बनाने के लिए आयुर्वेद ने भी ’अष्टांगयोग’ का आधार लिया है। आधुनिक शास्त्रकार ने बोधस्वरूप वृत्ति के रूप में इसे बताया है, जैसे – An idea which is merely entertained betone the mind.

जब तक मनुष्य के चित्त में (मन) विकार (वृत्ति) है तब तक बुद्धि दूषित होती रहती है, प्रज्ञापराध होकर मनुष्य को योग्य ज्ञान नहीं हो सकता। शुद्ध हृदय और निर्मल बुद्धि से ही आत्मज्ञान होता है। चित्त का लय साधना ही योग का ध्येय (उद्देश्य) है। चित्त की शुद्धि और पवित्रता के लिए अष्टांग योग साधन (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि) बताये है।

आयुर्वेद में सद्वृत्त पालन और आचार रसायन का वर्णन प्रायः मानसिक विकारों में चिकित्सा हेतु आया है। जिसके द्वारा मानसिक विकारों को जैसे- तनाव, भय, क्रोध, शोक, चिंता, उन्माद, अपस्मारादि को दूर किया जा सकता है।

आयुर्वेद में मेध्य रसायन, ब्राम्ही, शंखपुष्पी, गिलोय, यष्टिमधु, अश्वगंधा, जटामांसी, शतावरी, आमलकी, रस्वतारिष्ट, स्मृतिसागर रस, गजकेसरी रसादि औषधि कल्पों का मानसव्याधि दूर करने के लिए उत्तम उपाय बताये है। शिरोधारा, स्नेहन, पंचकर्मा द्वारा उपाय बताएं है। उचित काल में चिकित्सा करने पर मानस विकारों को संपूर्णतः दूर कर सकते है।

 

डॉ. अरूण भटकर
(सहयोगी प्राध्यापक)
संहिता सिद्धांत विभाग शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, नागपुर-24

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