अवसाद और चिंता जैसे मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे अब दुनिया के कई हिस्सों में तेजी से बढ़ रहे हैं। जिसमें भारत भी शामिल है। क्या अध्यात्म से मानसिक स्वास्थ्य को लाभ हो सकता है। दुनिया में बढ़ती हुई मानसिक बीमारी की घटनाओं को अगर हम देखें तो शायद ऐसा इसलिए हो रहा है कि हम इन सारे सहारों को हटा ले रहें है जो लोगों के लिए मानसिक रूप से स्वस्थ होने के लिए मौजूद थे।
मानवीय विवेक एक बहुत ही नाजुक चीज है। समझदारी और पागलपन के बीच एक बहुत ही महीन रेखा है। इस महीन अदृष्य रेखा को यदा कदा पार कर आप पागलपन का थोड़़ा बहुत मजा ले सकते है। आपने सीमा पार की और ये एक किस्म की आजादी या ताकत जैसी महसूस हुई। लेकिन एक दिन आपने यह रेखा पार की और जब आप वापस नहीं लौट पाते, तब पीड़ा शुरू होती है। ये शारीरिक बीमारी जैसी नहीं है-यह जबरदस्त पीड़ा होती है। किसी को भी ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से दुनिया में यह एक महामारी बनती जा रही है। भारत भी इसमें ज्यादा पीछे रहने वाला नहीं है।
दिमागी रूप से बीमार होना कोई मजाक नहीं है। ये बहुत ज्यादा तकलीफ देह है। अगर कोई शारीरिक रूप से बीमार है तो लोगों के अंदर उसके प्रति करूणा का भाव होता है। लेकिन अगर किसी को मानसिक बीमारी है तो दुर्भाग्य से अनेक बार उसकी हंसी उड़ती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह अंतर करना कठिन हो जाता है कि कब कोई व्यक्ति बीमार है और कब कोई मुर्खता कर रहा है। जिनके परिवार में कोई मानसिक रूप से अस्वस्थ है, उनके लिए यह बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि आप यह नहीं जानते है कि क्या वो वाकई तकलीफ में है या कि वो नाटक कर रहा है। आप नहीं जानते कि कब करूणा का भाव रखना है और कब उनके प्रति कठोर रूप अपनाना है।
भारतीय संस्कृति में लंबे समय से हम अपनी मानसिक और भावनात्मक स्थिरता के लिए कुछ चीजों पर निर्भर रहें हैं। इसमें से एक है अध्यात्म और दुसरा है परिवार। परिवार हमें एक खास सहारा देता है। भारत में जब हम संयुक्त रिवार में रहते थे तब चाहे जो भी हुआ हो, आपको भावनात्मक रूप से सहारा देने के लिए हमेशा कोई न कोई मौजूद होता था। परिवार ऐसे लोगों का समूह था जो आपके द्वारा किए जा रहे हर कार्य के लिए एक सुरक्षा कवच की तरह था। आप जिस भी तरह से गिरे कोई न कोई आपको कुछ पलों के लिए थामने को होता था। लेकिन इन दिनों कई कारणों से अधिकांश लोगों के लिए वह सुरक्षा कवच उपलब्ध नहीं है। अब जब आप गिरते है, मानसिक व भावनात्मक रूप से कमजोर होते हैं और यदि आपके पास सुरक्षा कवच उपलब्ध नहीं है तो आप टूट जाते हैं।
निश्चित रूप से यह एक संकट है जो हमें परेशान कर रहा है। इससे हमारे शरीर में मानसिक व भावनात्मक रूप से कई प्रकार के परिवर्तन होते है। इसे देखने का एक सरल तरीका यह है कि हर इंसानी अनुभव का एक रासायनिक आधार होता है। मानसिक स्वास्थ्य और बीमारी का भी एक चिकित्सक का काम रासायनिकता के इस असंतुलन को संभालने की कोशिश करना है। आज पूरा औषधि विज्ञान सेहत को रसायन के इस्तेमाल से संभालने की कोशिश कर रहा है। मानसिक असंतुलन को भी मुख्यतया बाहर से रसायन देकर संभाला जा रहा है। लेकिन इस धरती पर जितने भी रसायनों की हम सोच रखते है , तो किसी न किसी रूप में इस शरीर में पहले ही मौजूद है।
इन चीजो को संभालने के लिए एक और पहलू है और वह है- अध्यात्म। धर्म और अध्यात्म ने मनुष्य के मनोवैज्ञानिक संतुलन को सहजता से संभाला हुआ था। ’’भगवान तुम्हारे साथ है, चिंता मत करो’’ इस एक वाक्य से तमाम लोगों को संतुलन में रखा है। अध्यात्म की राह आपको अपने भीतर हर पल धड़कते हुए सृष्टि के स्त्रोत तक पहुंचने में सहायक होती है। अपने मानसिक और भावनात्मक स्थिति को बाहर से संभलने के बजाय उसे अंदर से संभालना अधिक हितकर है, लेकिन उसके लिए आपको अपनी अध्यात्म शक्ति को समझना होगा व उसमें दृढ़ विश्वास कर अपनी आंतरिकता तक पहुंच बढ़ानी होगी। हमें धर्म के इस आध्यात्मक पहलू को स्वीकारना होगा। यह एक बहुत ही सस्ती जन-मनोचिकित्सा है।
मानसिक व भावनात्मक स्वास्थ्य का मतलब यदि हमारी मानसिक स्थिति सुखद बन जाती है। तो हम इसे शांति कहते है। अगर वह बहुत सुखद बन जाती है तो हम उसे खुशी कहते है। इसी प्रकार यदि हमारी भावनात्मक स्थिति सुखद बन जाती है तो हम उसे प्रेम कहते हैं। अगर वो बहुत सुखद बन जाती है तो हम उसे करूणा कहते है।
जिस प्रकार शारीरिक स्वास्थ्य का जितना महत्व है उसी प्रकार मानसिक स्वास्थ्य को हम अनदेखा नहीं कर सकते हैं। जीवन में सुख, शांति व आनंद की प्राप्ति मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर है। मानसिक स्वास्थ्य को बरकरार रखने के लिए हमें परिवार व अध्यात्म का सहारा लेना चाहिए ताकि हम दीर्घ समय तक स्वस्थ जीवन जी सकें।
श्री विक्रम जग्यासी,
नागपुर