Vatvyadhi ki Upyukt Panchkarm Chikitsa

वायुः आयुः बलं वायुः वायुः धात्रां शरीरिणाम्
वायुः विश्वं इदं सर्वं प्रभुः आयुश्च कीर्तितः

वायु उत्कृष्ट ऊर्जा का स्रोत है। त्रिदोषों में वायु की प्राकृतिक अवस्था अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है।

अव्याहत गतिः तस्य स्थानस्य प्रकृतौ स्थितः

वात दोष की गति जब योग्य अवस्था में और निजी स्थान में होती हैं तब शरीर व्यापार किसी तकलीफ के बिना सरलता से चलते है और व्यक्ति सौ साल तक आरोग्यपूर्ण जीवन बिताता है। लेकिन कई बार आहार-विहार के न पालन करने से तथा ऋतु के अनुसार वातदोष की विषमता पायी जाती  है। यह विषमता दो प्रकार की होती है वृध्दि और क्षय। जब धातु क्षय होता है तब सर्वांग अभ्यंग- षष्ठीकशाली पिंडस्वेद तथा हवणीय द्रव्यों से सिद्ध अनुवासन बस्ति इत्यादि पंचकर्म उपचार करने चाहिए। धातुक्षय जन्य वातव्याधि की यह चिकित्सा उपयुक्त पायी जाती है।

वातदोष आवरण संप्राप्ति से जब वातव्याधि उत्पन्न करता है तब दीपन-पाचन-अनुलोमन तथा आवरणनाशक चिकित्सा करनी चाहिए। 

अधिक आकलन के लिए कुछ व्याधि तथा चिकित्सा

1) शूलप्रधान वातव्याधि – गृध्रसी, तूनी- एंरडमूलादि निरूह बस्ति, अनुलोमन, सर्वांग अभ्यंग, कटिबस्ति, पत्रपिंडस्वेदन, सिरावेध इत्यादि चिकित्सा 

2) शोथप्रधान वातव्याधि – क्रोष्टुकशीर्ष, वातरक्त, आमवात, कोष्टुक शीर्ष अवस्था में विरेचन चिकित्सा 

वातरक्त – गुडुच्यादि  क्षीरबस्ति, विरेचन चिकित्सा

आमवात – रूक्षपिंडस्वेद, वैतरणबस्ति, निरूह बस्ति, विरेचन उपयुक्त है।

3) अकर्मता प्रधान वातव्याधि – अर्दित, पक्षाघात में रूक्षपिंडस्वेदन, सर्वांगअभ्यंग (महानारायण तैल, धान्वंतर तैल) कषायधारा – षष्ठीकशाली पिंडस्वेदन, कुक्कुटांड पिंडस्वेदन, स्निग्ध संकर स्वेदनम्

मृदु अनुलोमन – गंधर्वहरीतकी,  गंधर्वहस्तादि कषायम्

बस्ति – दशमूलादि निरूहबस्ति, बलाअश्वगंधादि तैलम्,  अनुवासन बस्ति 

नावन नस्य – क्षीरबला 101 तैलम् नस्यम्

4) शोषप्रधान वातव्याधि – Wasting, अंससंशोष 

अभ्यंग – महामाषादि तैलम्

दशमूलक्वाथ – नाडीस्वेदनम्

बृंहण नस्य तथा मधुराम्लरसप्रधान स्निग्धोष्ण आहार, विश्राम्

5) स्तंभप्रधान वातव्याधि – मन्यास्तंभ, हनुस्तंभ, ऊरूस्तंभ, कटिग्रह स्तंभ यह शूल का प्रमुख कारण है। यहां आवरण नष्ट करने के लिए उद्वर्तन, रूक्षस्वेद चिकित्सा उपयुक्त है। पश्चात् वातशामक द्रव्यों से सिध्द निरूहबस्ति योग्य है।

6) गतिवृध्दि प्रधान वातव्याधि – कंपवात 

बलादि तैल अभ्यंग – वातशामक द्रव्यों से सिध्द कषाय नाडीस्वेद।

परिषेक – धारा पश्चात् अश्वगंधादि तैल से अनुवासन बस्तिप्रयोग उपयुक्त पाया जाता है। 

वातव्याधि में आशुकारी चिकित्सा के बतौर पर पंचकर्म का विशेष महत्व है। व्याधिनिर्माण में हेतुपूर्वक संप्राप्ति विघटन तथा प्राकृत स्थिती अल्प अवकाश में स्थापित करने की क्षमता पंचकर्म चिकित्सा रखती है। बाह्यमार्ग, मध्यममार्ग तथा आभ्यंतर रोगमार्ग स्थित व्याधि में बस्तिचिकित्सा उपयुक्त पायी गई है। सूक्ष्म अवकाशा- स्त्रोतसंस्थित आम तथा आवरण नाशन पंचकर्म से जल्दी होता है। धात्वाग्निवर्धन तथा धातुव्यापार सुधारने से सारधातुवृध्दि बस्ति चिकित्सा व्दारा गुणकारी होती है। 

इस प्रकार वातव्याधि निर्हरणार्थ पंचकर्म चिकित्सा अत्यंत फलप्रद पायी जाती है।  

वैद्य पद्मावती वैकंटेश कुलकर्णी
प्रमुख पंचकर्म चिकित्सक,
अथर्व आयुर्वेद क्लिनीक
हुबली-कर्नाटक

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