आजकल अधिकांश लोग जोड़ों के दर्द से परेशान रहते हैं, जिसके कारण उन्हें चलने, फिरने, उठने-बैठने, रोजमर्रा के कार्य करने में अत्यन्त कष्ट का अनुभव होता है। हमारे शरीर में हड्डियों के जोड़ या सन्धियां चलने, फिरने, उठने बैठने आदि सभी क्रियाकलापों में प्रमुख भूमिका निभाते हैं, जब किसी कारण इन जोड़ों में विकार उत्पन्न हो जाता है, तो मनुष्य अपने दैनिक कार्यों को भी करने में परेशानी का अनुभव करता है। वर्तमान में जोड़ों की व्याधियां प्रौढ़, वृद्धों एवं युवाओं को प्रभावित कर रही है। आयुर्वेद में अस्सी प्रकार की वातव्याधियां बतायी गयी हैं जिनमें सभी जोड़ों की व्याधियां भी सम्मिलित हैं। जोड़ों की व्याधियों को लोग अधिकतर गठिया या बॉय के नाम से पुकारते हैं। जिसको सामान्यतः आर्थराइटिस कहते है। जोड़ों की व्याधियों के अन्तर्गत भी अनेक रोग हैं जैसे संधिवात, आमवात एवं वातरक्त जो कि प्रमुख रूप से होते हैं, लेकिन रोगी को इनमें अन्तर न समझ में आने से वह इन्हें गठिया या बाय ही समझता है। अतः इन तीनों जोड़ों की व्याधियों के बारे में अन्तर जानना जरूरी है।

संधिवात प्रायः प्रौढ या वृद्धावस्था में अधिकतर पायी जानेवाली व्याधि है। यह क्षयजनित व्याधि, जो सामान्यतः 40-45 वर्ष के बाद मनुष्यों में पायी जाती है। पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं इस रोग से अधिक पीड़ित रहती है। इस रोग में मुख्यतः शरीर की बड़ी सन्धियां जैसे घुटना, कमर, कंधों तथा टखना यहां तक कि रीढ की हड्डी तक प्रभावित होती है। जोड़ों में तेज दर्द तथा सूजन होना संधिवात का प्रमुख लक्षण है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में संधिवात को ओस्टियोआर्थराइटिस (Osteoarthritis) कहा जाता है।

आमवात किसी भी आयु में हो सकता है किन्तु 20-45 वर्ष की आयु में अपेक्षाकृत अधिक होता है। यह भी पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अधिक होता है। आमवात को सन्धियों में होने वाले रोगों का राजा कहा जाता है। यह सम्पूर्ण शरीर में होता है लेकिन इसका प्रभाव ज्यादातर बड़ी सन्धियों कोहनी, एड़ी तथा कमर आदि स्थानों में पाया जाता है। इन स्थानों पर बिच्छू के डंक के समान दर्द होता है। आमवात में सन्धियों पर सूजन रहती है तथा बुखार भी रहता है। यह रोग एक सन्धि से दूसरी सन्धि में स्थान्तरित होता रहता है। इस रोग की तुलना रुमेटाइड आर्थराइटिस (Rheumatoid arthritis) से कर सकते हैं।

वातरक्त में जोड़ों, विशेषकर छोटी सन्धियों में सूजन, दर्द तथा विवर्णता उत्पन्न होती है। इस रोग में मुख्यतः वात एवं रक्त दूषित होते हैं, इसलिये इसे वातरक्त भी कहते हैं। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार रक्त में यूरिक एसिड की मात्रा अधिक बढ़ जाने के कारण यह रोग उत्पन्न होता है। लक्षणों के आधार पर इसकी तुलना गॉउट (Gout) से की जा सकती है। 

संधिवात, आमवात, वातरक्त ये तीनों ही अस्थि सन्धियों या जोडों के रोग है अतः इनमें अन्तर समझते हुए ही रोग की चिकित्सा करनी चाहिए।

आयुर्वेद में संधिवात रोग की उत्पत्ति का प्रमुख कारण वातदोष तथा क्षय माना जाता है। बढ़ती आयु के साथ शरीर में वात दोष की वृद्धि होती है। अधिक वातवर्धक आहार- विहार जैसे गरिष्ठ भोजन, तली-भुनी, मिर्च मसाले वाली चीजें खाने, रात्रि जागरण, भय, शोक, चिन्ता के कारण वायु प्रकुपित होकर सन्धियों में जाकर अपने रुक्ष गुण के कारण क्षय एवं पीड़ा उत्पन्न करती है तथा सन्धियों के बीच पाये जाने वाले तरल पदार्थ को सुखा देती है। सन्धि में सूजन होती है एवं संकोच व प्रसार इत्यादि की गति से दर्द होता है। सन्धियों में वात पहुंच कर शोथ एवं वेदना उत्पन्न करने से इसे संधिवात कहते हैं। संधिवात में एक या एक से अधिक जोड़ों के कार्टिलेज धीरे-धीरे घिसते हैं या टूट जाते हैं जिससे जोड़ की हड्डियाँ आपस में रगड़ खाने लगती हैं। सन्धि की गति के समय कट-कट की आवाज सुनाई दे सकती है। मांसपेशियां एवं स्नायु शिथिल होने लगते हैं, अस्थियों के बीच की दूरी क्रमशः कम होने से यह आवाज अस्थियों के रगड़ने से उत्पन्न होती है जिससे दर्द एवं सूजन में वृद्धि हो जाती है।

चिकित्सा – आयुर्वेद में आहार-विहार, योग एवं व्यायाम तथा औषधियों द्वारा संधिवात के लक्षणों को कम किया जा सकता है जिससे रोगी को दर्द में आराम मिलता है। इनके प्रयोग से संधिवात के लक्षणों में लम्बे समय तक उसमें कमी लायी जा सकती है। संधिवात में आहार- विहार का विशेष ध्यान रखना चाहिये। रोगी को वातनाशक आहार जिसमें मधुर, अम्ल, लवण रसों की अधिकता हो उसका सेवन करना चाहिये। वातवर्धक आहार-विहार जैसे गरिष्ठ भोजन, रात्रि जागरण, भय, शोक, चिन्ता आदि से दूर रहना चाहिए। भोजन में दूध, घी, मांस, फल तथा सब्जियों का अधिक प्रयोग करना चाहिये। सख्त तलवा की जूता चप्पल को नहीं पहनना चाहिये। रोगी को सीढ़ियों पर कम से कम चढ़ना चाहिये तथा प्रातःकाल टहलने जाना चाहिए। रोगी को पैदल ज्यादा चलना हो तो घुटनों पर नी कैप (गर्म पट्टी) पहनकर चलना चाहिए एवं वजन कम करने के उपाय करना चाहिए। जैसे-जैसे वजन कम होगा रोगी के लक्षण अपने आप कम होते जाते हैं। संधिवात की चिकित्सा में पंचकर्म चिकित्सा का विशिष्ट महत्व है। इसके अन्तर्गत स्नेहन, स्वेदन से रोगी को अन्यन्त लाभ मिलता है। पंचकर्म का प्रयोग प्रशिक्षित पंचकर्म विशेषज्ञ द्वारा ही कराना चाहिये। आयुर्वेदिक औषधियों अश्वगंधा, शतावरी, शुण्ठी, गिलोय का चूर्ण, महावातविध्वंसन रस, समीरपन्नग रस, वृहतवात चिन्तामणि रस, महायोगराज गुग्गुल, त्रयोदशांग गुग्गुल, रास्नादि गुग्गुल, श्रृंग भस्म, प्रवाल भस्म, गोदन्ती भस्म, महारास्नादि क्वाथ, रास्नासप्तक क्वाथ, दशमूल क्वाथ, अश्वगंधारिष्ट, दशमूलारिष्ट, एरण्डपाक, महानारायण तैल, महामाष तैल आदि का प्रयोग चिकित्सक की सलाह पर ही करना चाहिए। 

संधिवात में उपयोगी योगोपचार

योग व्याधियों के निराकरण का एक प्राकृतिक साधन है। अस्थि संधिगत रोग में व्यक्ति की संधियों में मुख्य रूप से विकार आ जाता है। संधियों में अकड़न आ जाती है, जो योग के अनुसार ऊर्जा का अवरोध है। प्रकृति की हर संरचना में ऊर्जा प्राकृतिक रूप से प्रवाहित हो रही है। चाहे वे पेड़-पौधे हों या पर्वत-नदियाँ आदि कुछ भी हों। नकारात्मक सोच, गलत असंयमित खान-पान, समुचित व्यायाम के अभाव के कारण शारीरिक ऊर्जा अवरोधित होने लगती है। जब यह अवरोधित ऊर्जा संधियों में संचित होने लगती है तो अस्थि संधिगत रोगों की उत्पत्ति होती है। योग शारीरिक सक्रियता उत्पन्न करता है। ऊर्जा के अवरोधों को दूर करता है और एक सकारात्मक दृष्टि कोण उत्पन्न करता है।

नियमित रूप से योग द्वारा माँसपेशियों व जोड़ों में संतुलन, शक्ति व लचीलापन आता है। योगासन रोगी की माँसपेशियों व हड्डियों को मजबूत करके इस रोग से होने वाले दुष्प्रभावों से बचाता है। अस्थि संधिगत रोगों को ध्यान में रखकर एक सामान्य दैनिक अभ्यास क्रम इस प्रकार कर सकते हैं- यौगिक सूक्ष्म अभ्यास, सूर्य नमस्कार-2 बार (वृद्धजन इसका अभ्यास न करें) अर्द्धचक्रासन, अर्द्धकटिचक्रासन, त्रिकोणासन, शशांकासन, उष्ट्रासन, वक्रासन, सेतुबंधासन, भुजंगासन, पवनमुक्तासन, प्राणायामः अनुलोम – विलोम, कपालभाति , सूर्यभेदन। इस समस्त अभ्यास क्रम में यौगिक सूक्ष्म अभ्यास एवं प्राणायाम का संधिगत रोग में सर्वाधिक महत्व है।

संधिवात को दूर करने में व्यायाम तथा योग प्रमुख भूमिका निभाते हैं। रोगी कुर्सी पर बैठकर पैर सीधे फैलाये तथा ताने फिर ढीला छोड़कर फिर से तानें। यह प्रक्रिया कई बार दोहरानी चाहिए। इसके अलावा किसी ऊँचे स्थान पर बैठकर तथा पैर के पंजों पर आधा-आधा किलोग्राम की बालू की पोटली रखकर जंघाओं पर स्थिर कर पंजों को घुटने की ऊँचाई तक बार-बार ऊपर-नीचे करें। ऐसे कोई भी व्यायाम नहीं करने चाहिए जिससे जोड़ों पर ज्यादा जोर पड़े इसलिए टहलना रोगी के लिए सबसे अच्छा व्यायाम है। संधिवात में कमर से लेकर पंजों तक के दर्द को दूर करने के लिए वज्रासन और शवासन जैसे योगासनों का अभ्यास किया जा सकता है। वज्रासन करने के लिए जमीन पर दरी बिछाकर बैठें और घुटनों के बल खड़े हो जाएं। दोनों हाथों को पैरों के तलवों पर रखें और पेट को आगे और गर्दन को पीछे की ओर मोड़ें। शवासन करने के लिए कमर के बल जमीन पर लेट जाएं और दाएं पैर को घुटने से मोड़कर जांघ को सीने पर लगाएं। इसके अलावा गरुड़ासन, उत्कटासन, ताड़ासन, कटिचक्रासन व अर्ध-चक्रासन, भुजंगासन, मकरासन, मर्कटासन, पवनमुक्तासन, कन्धरासन, वक्रासन आदि संधिवात में उपयोगी है लेकिन यह योगासन केवल कुशल योग चिकित्सक की देख-रेख में किया जाना चाहिए।

Writer Suresh Kumar

डॉ. सुरेश कुमार
M.D. (Ay.), P.G.D.N.Y.Sc.
प्रभारी चिकित्साधिकारी राजकीय आयुर्वेदिक चिकित्सालय एवं योग वेलनेस सेंटर, तेलीबाग, लखनऊ (उ.प्र.)

On the occasion of International Yoga Day

Yoga is not limited only to physical health, it has countless benefits, know from Dr. Anju Mamtani…..

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