आजकल जीकुमार आरोग्यधाम में स्पाइन समस्या से ग्रस्त रूग्ण अधिक आ रहे हैं विशेषतः युवा वर्ग भी। आधुनिक चिकित्सा के सभी उपाय जैसे पेन किलर, स्टेराइड, कैल्शियम, फिजियोथेरेपी लेकर आते हैं। आराम न होने पर जब डॉक्टर उन्हें ऑपरेशन की सलाह देता है तब वे आयुर्वेद की शरण में आते है। हमारे जीकुमार आरोग्यधाम में वे बिना ऑपरेशन के ठीक हो रहे हैं।
आधुनिकता की दौड में हम परिश्रम से दूर होकर यांत्रिक जीवन जीने लगे हैं। हमारे लगभग हर कार्य में मशीनों का प्रवेश हो गया है। चाहे चटनी बनाने या मसाले पीसने के लिए ग्राइंडर का या फिर कपड़े धोने के लिए वाशिंग मशीन का उपयोग हो, हमें ज्यादा हाथ-पैर हिलाने नहीं पड़ते। पहले महिलाएं सिलबट्टे पर चटनी पीसती थीं, मसाले भी हाथ से ही कूटे जाते थे। उन दिनों स्कूटर, बाइक, कार आदि का प्रचलन कम होने के कारण लोग पैदल अथवा साइकिल पर आवागमन करते थे। इन सब शारीरिक गतिविधियों के फलस्वरूप उनकी मांसपेशियां और हड्डियां सदैव सक्रिय एवं स्वस्थ रहती थी। अतिरिक्त व्यायाम के साथ ही पौष्टिक व संतुलित भोजन की ओर भी ध्यान दिया जाता था किंतु आज निष्क्रिय-सी हो चुकी दिनचर्या की वजह से हम विभिन्न रोगों को आमंत्रित कर रहे हैं। इनमें हमारी शरीर की प्रमुख अस्थि ’मेरूदंड’ अर्थात् रीढ़ के विकारग्रस्त हो जाने से कई समस्याएं भुगतनी पड़ती हैं। अतः इससे संबंधित बीमारियों व उनकी चिकित्सा संबंधी जानकारी होना निहायत ही जरूरी है।
मानव-रीढ़ की बनावट साइकिल की चेन के समान लचीली होती है। इस बनावट के कारण ही मनुष्य अपने शरीर को आगे-पीछे व दाएं-बाएं घुमा सकता है, सीधा खड़ा हो सकता है, चल सकता है और अन्य गतिविधियां भी इसकी वजह से ही संभव हैं। जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, शरीर कमजोर होता जाता है। रीढ़ की हड्डी पर इस बात का प्रभाव अधिक पड़ता है कि युवावस्था में हमने उसका कितना और कैसा उपयोग किया है। व्यायाम न करना, घंटो एक कुर्सी पर बैठे रहना, कार-बस-रेलगाड़ी में सही तरीके से नहीं बैठना इत्यादि ऐसे अनेक कारण है, जिनसे रीढ़ की हड्डी में कोई खराबी या व्याधि आ जाती है। वाहन को चलाते समय लगने वाले झटकों से भी रीढ़ से संबंधित विकार होते हैं। रीढ़ की हड्डियों के प्रमुख रोग है- स्पांडिलाइटिस,स्लिप डिस्क, साइटिका इत्यादि।
रीढ की हड्डियां
प्रकृति ने मानव शरीर की रचना इस तरह की है कि उसमें रीढ़ की हड्डी का स्थान महत्वपूर्ण है। यह हड्डी गर्दन से कमर तक होती है। गर्दन वाले हिस्से में 7 (Cervical), छाती वाले हिस्से में 12 (Thorasic) व कमर के हिस्से में 5 मनके (Lumbar) होते हैं। इसके बाद कूल्हे के जोड़ों वाली 5 हड्डियां (Sacral) तथा अंत में अत्यंत नाजुक 4 हड्डियां (Coccygeal) होती हैं। इस तरह कुल मिलाकर रीढ़ 33 अस्थियों से मिलकर बनती है। प्रत्येक 2 मनको के बीच में रिक्त जगह पर गद्दी होती है, जिसे ’डिस्क’ कहते हैं। यह 2 मनकों को हुक की तरह जोड़कर रखती है। इसका बाह्य भाग कड़ा व बीच का भाग कोमल होता है। डिस्क का कार्य रीढ़ को लचीला बनाना व अस्थियों को आघात, दबाव, तनाव इत्यादि से बचाना है। रीढ़ के पीछे स्पाइनल कैनाल होता है, जिसके भीतर से अनेक नाड़ियां निकलती है, जो कि मस्तिष्क से बाकी शरीर की ओर गुजरती है।
स्पांडिलाइटिस
स्पांडिलाइटिस से सामान्यतः शहरी आबादी ज्यादा आक्रान्त है क्योंकि यहां के लोगों की दिनचर्या में श्रम का अभाव और ऐशो-आराम अधिक होता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि इस समस्या का सबसे प्रमुख कारण गलत पोश्चर है, जिससे मांसपेशियों पर दबाव पड़ता है। इसके अलावा शरीर में कैल्शियम की कमी दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण है।
हमारे हॉस्पिटल में हर सप्ताह स्पॉन्डिलाइटिस के 20 नये मामले आते है, जिनमें मरीज की उम्र 40 से कम होती है। एक दशक पहले के आंकड़ों के तुलना करें तो यह संख्या तीन गुनी बढी हुई है। वे युवा ज्यादा परेशान मिलते हैं, जो आईटी इंडस्ट्री या बीपीओ में काम करते हैं या जो लोग कम्प्यूटर के सामने अधिक समय बिताते हैं। एक अनुमान हमारे देश का हर सातवां व्यक्ति गर्दन और पीठ या जोड़ों के दर्द से परेशान हैं।
स्पोंडिलोसिस मेरुदंड की हड्डियों की असामान्य बढ़ोत्तरी और वर्टेब्रा (Verterbra) के बीच के कुशन (इंटरवर्टेबल डिस्क) में कैल्शियम के डी-जेनरेशन, बहिःक्षेपण और अपने स्थान से सरकने की वजह से होता है।
कारण:- उठने-बैठने व सोने के गलत तरीके, भीड़ भरे रास्तों पर अधिक समय तक गाड़ी चलाना, आघात, रीढ़ की हड्डी का क्षय रोग, संक्रमण इत्यादि भी इसके कारणीभूत घटक हैं। स्पांडिलाइटिस का अर्थ है- रीढ़ की हड्डी में सूजन। उम्र बढ़ने के साथ और शरीर में कैल्शियम व विटामिन्स, पोषक तत्वों की कमी या कभी-कभी छोटी-मोटी दुर्घटनाओं के कारण आघात होने से रीढ़ की हड्डी को चोट पहुंचाती है। एक्जीक्यूटीव का कार्य करनेवाले इससे ज्यादा ग्रस्त रहते हैं। जिम जाने वालों में गलत ढंग से वजन उठाने व गलत पोश्चर से भी इससे ग्रस्त होते हैं। स्थान के आधार पर स्पंडिलाइटिस के मुख्यतः 2 प्रकार कहे गए हैं-
1. सर्वाइकल स्पांडिलाइटिस (गर्दन)
2. लम्बर स्पांडिलाइटिस (कमर)
सर्वाइकल स्पांडिलाइटिस
सर्वाइकल स्पांडिलाटिस से ग्रस्त व्यक्ति अधिक देर तक बैठकर काम करनेवाले, वाहनादि अधिक समय तक चलानेवाले, कम्प्यूटर के स्क्रीन पर लगातार काम करने वाले, व्यायाम न करनेवाले, बैंक आदि के कर्मचारी होते हैं। ऐसे रोगी को गर्दन में दर्द, भारीपन, जकडाहट, सुजन, बांहों में दर्द व सुन्नता, चक्कर, सिरदर्द व इस वजह से शरीर के दूसरे हिस्से में भी दर्द की शिकायत रहती है। रोजमर्रा के कार्य में यह दर्द तकलीफ देता है। धीरे-धीरे बांहों का दर्द उंगलियों तक प्रसारित होता है. जिससे रूग्ण उंगलियों से चम्मच या पेन पकड़ने में भी असमर्थ होता है। कमजोर मासपेशियों के कारण बांहों को हिलाना भी मुश्किल होता है। इसके अलावा कभी-कभी छाती में भी दर्द होता है।
टेलीविजन या कम्प्यूटर के स्क्रीन पर लगातार घंटों आंखें गड़ाए रखना, कंधे से टेलीफोन लगाए रखकर देर तक बातें करना फिर लंबे समय तक लेटकर पढ़ना आदि भी गर्दन में जकड़न या दर्द लाने के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। नियमित रूप से कंधों, गर्दन व बाहों की कसरत आवश्यक है। हर एक घंटे बाद गरदन व कमर को खींचें। लगातार झुककर काम न करें। दिन में गर्दन में विशेष कालर (सर्वाइकल कालर) तथा रात में सोते समय गर्दन के नीचे विशेष तकिया (सर्वाइकिल पिलो) रखना लाभदायक होता है। इससे भी गर्दन की रीढ़ की हड्डी की कोशिकाओं के बीच की जगह बढ़ जाती है और बढ़ी हुई डिस्क सही स्थिति में आ जाती है, तंत्रिकाओं पर पड़ने वाला दबाव व तनाव कम हो जाता है व रोगी को आराम मिलता है।
स्पोंडिलोसिस से पीड़ित लोग गर्दन के नीचे बड़ा तकिया न रखें। उन्हें पैरों के नीचे भी तकिया नहीं रखना चाहिए। ऐसी मेज और कुर्सी का प्रयोग करें, जिन पर आपको झुक कर न बैठना पड़े। हमेशा कमर सीधी करके बैंठें।
लम्बर स्पांडिलाइटिस
लम्बर स्पांडिलाइटिस से पीड़ित रोगी की कमर में तीव्र वेदना, उठने-बैठने में तकलीफ, झुकने में असमर्थता, कमर से पैरों तक तीव्र वेदना, चलने में कष्ट, पैदल चलने के कुछ क्षण बाद बैठने की इच्छा होना, पैर सुन्न हो जाना इत्यादि समस्याएं होती है।
इसके अलावा लंबर स्टेनोसिस में स्पाइनल कार्ड (मेरुदंड) कड़ा हो जाता है। उसमें लचीलापन कम हो जाने की वजह से दोनों पैरों में ढ़ीलापन, चींटियां चलना, चलने में असमर्थता, लंगड़ाकर चलना, बैठने के पश्चात उठना मुश्किल लगना, दर्द इत्यादि लक्षण मिलते हैं। रीढ़ की हड्डी में डिजनेरेटिव परिवर्तन आने से भी स्पांडिलाइटिस होता है। इनमें मेरूदंड के दोनों मनके घिस जाने और वहां से निकलने वाली नाड़ियां दब जाने से वहां दर्द इत्यादि कर्म हानि के लक्षण मिलते हैं।
एंकिलोजिंग स्पांडिलाइटिस
रीढ़ की हड्डी के अलावा कंधों और कूल्हों के जोड़ इससे प्रभावित होते है। इसमें स्पाइन, घुटने, एड़ियां, कूल्हे, कंधे, गर्दन और जबड़े कड़े हो जाते है। साथ ही रक्त परीक्षण में HLA&B27 Test पाजिटिव मिलती है। पृष्ठ वंश अर्थात् गर्दन, पीठ व कमर की रीढ़ की हड्डियों, वंक्षण-संधि में सूजन आती है तथा संधियों की हलचल नहीं होती है। धीरे-धीरे सभी जोड़ अकड़ जाते हैं। इस रोग में संधिग्रह (Stiffness of Joints) होता है। विशेषतः वंक्षण संधि (Hip Joint) में जकड़हाट आती है। सुबह के समय यह जकड़ाहट ज्यादा होती हैं। संधियों के बीच जगह कम होकर दोनों हड्ड्यिां आपस में जुड़ जाती हैं व हलचल नहीं होती। सभी संधियों में जकड़हाट के कारण रोगी लकड़ी जैसा स्तब्ध हो जाता है। कभी-कभी पीठ से कुबड़ा हो जाता है।
शरीर का उपर का भाग सामने की ओर झुक जाता है। चलना-फिरना बंद हो जाता है तथा छाती व पीठ का भाग जकड़ता है। स्नायुओं का क्षय (Wasting of Muscles) होता है। रोगी हड्ड्यिों का ढांचा बनकर बिस्तर पकड़ लेता है। ज्वर, भूख न लगना, अरुचि, थकान, रक्तगत हिमोग्लोबीन की कमी, सांस फूलना इत्यादि लक्षण होते हैं। किसी-किसी को आंखों की सुजन होती है जिसे Uveitis कहते हैं।
साइटिका
साइटिका नाम की नाड़ी, कमर की पांचवी हड्डी से तथा पहली सैक्रम हड्डी से निकलकर पूरी पैर में फैली होती है। इस नाड़ी के तंतु दबने से जो रोग होता है, उसे साइटिका कहते हैं। दरअसल गृधसी नाड़ी (Sciatic Nerve) में सूजन या क्षोभ होने से तीव्र वेदना होती है। इस दर्द की वजह से कमर की मांसपेशियों में संकोच होता है, जिससे पृष्ठवंश की हड्ड्यिां करीब आती है। अतः नाड़ियों के उद्गम स्थल में दबाव पड़कर पुनः पीड़ा होती है। क्षोभ (Irritation) व पीड़ा का यह चक्र अनवरत चलता रहता है।
80 प्रतिशत लोगों में यह रोग चोट लगने से होता है, इसलिए यह रोग पुरुषों में अधिक होता है। भारी वस्तु उठाने से भी यह रोग होता है, जैसे-मजदूर, कुली, सैनिक, किसान, पर्वतारोही, पहाड़ी आदि वर्गों में यह रोग अधिक प्रमाण में पाया जाता है। साइटिका रीढ़ के किसी भी हिस्से को प्रभावित कर सकता है, परंतु अधिकांशतः रीढ़ के निचले हिस्से में ही होता है। मधुमेह पीड़ित व स्थूल व्यक्ति इससे ज्यादा आक्रान्त होते हैं।
मुख्य लक्षण:- कमर से लेकर पैर तक अहसहनीय पीड़ा, चलने-फिरने में कष्ट का अनुभव, विशेष अवस्था में सोने से दर्द में राहत मिलना, बैठक अवस्था या सोने के पश्चात उठने पर अत्यंत वेदना, वाहनादि पर बैठने से दर्द का बढ़ना, चलते समय पैर का लड़खड़ाना, बार-बार साइटिका नर्व पर क्षोभ होने से पैर शिथिल पड़ जाते हैं और रोगी चलने में असमर्थ होता है। कालांतार में एक स्थिति ऐसी आती है कि रोगी सदैव बिस्तर पर रहने के लिए मजबूर होकर करवट बदलने तक में असमर्थ होता है। अपंग की भांति उसे अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता है। रोजमर्रा की क्रियाओं के लिए उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। साइटिका का रोगी आगे झुककर पैर की उंगली को छूने में असमर्थ होता है। बिस्तर पर सीधा लेटकर पैर को बिना मोड़े ऊपर उठाने पर दर्द होता है। चलते समय रोगी पीड़ा की विपरीत दिशा में झुककर चलता है। जंघा भाग के पीछे के भाग में चुभने जैसी पीड़ा मुख्य लक्षण है। साइटिका अधिकांशतः एक पैर में होती है, परंतु दोनों में भी साइटिका के लक्षण पाए जा सकते हैं।
आधुनिक चिकित्सा पद्धति में साइटिका रोग में मात्र शोथनाशक व वेदनाशामक औषधि देकर रोगी को संतुष्ट करते हैं परंतु इससे स्थायी लाभ की प्राप्ति असंभव है। इसके अलावा आगे चलकर इसके दुष्परिणाम भी होते हैं।
स्लिप डिस्क
रीढ़ की हड्डियों (कशेरुकाओं) के बीच में स्थित मांसल भाग डिस्क कहलाता है, जो उन्हें घर्षण से बचाता है। यदि यह डिस्क स्वयं के स्थान से खिसक जाए तो उसे स्लिप डिस्क कहते हैं। परिणाम स्वरूप रूग्ण को भयंकर वेदना होती है।
इस रोग में डिस्क में विकृति के 2 प्रकार होते हैं। प्रथम प्रकार में डिस्क का रीढ़ की हड्डी के सामने अर्थात् पेट की ओर खिसकना। दूसरे प्रकार में डिस्क का पीछे अर्थात पीठ की ओर सिरकना। इन दोनों स्थितियों में से डिस्क का पीछे खिसकना रुग्ण के लिए खतरे वाला होता है। अधिकतर रोगियों में कमर के नीचे की डिस्क सरकती है। इस कारण कमर में भंयकर वेदना होती है। किसी काम के लिए सामने झुकने पर ऊपर उठना मुश्किल होता है। यह व्याधि 20 से 40 वर्ष आयु के युवकों में अधिक प्रमाण में मिलती है।
स्लिप डिस्क में वेदना कमर से पैर तक जाती है। इसका कारण खिसकने वाली डिस्क का दबाव एक पैर की नाड़ी पर पड़ने के कारण पैर में वेदना होती है। पैरों की मांसपेशियों में अत्यधिक वेदना होती है। थोड़ी दूर तक चलने पर रूग्ण बैठना चाहता है। कुछ समय के लिए पैर सुन्न होने लगते हैं। मूत्राशय की पेशी पर दबाव पड़ने से रुक-रुककर मूत्र प्रवृत्ति होती है। निरंतर वेदना के कारण रुग्ण विकलांग जैसा हो जाता है। इस प्रकार स्लिप डिस्क का रोगी दर्द से अत्यंत विचलित रहता है।
पंच सूत्री चिकित्सोपक्रम
यह चिकित्सोपक्रम 5 विभागों में किया जाता है।
1. आहार 2. घरेलू उपाय 3. औषधि 4. पंचकर्म, 5. व्यायाम
1. आहार: रुग्ण को सादा, सुपाच्य, हल्का आहार ग्रहण करना चाहिए। अत्यंत मिर्च, मसाले, खटाई, तली चीजों का सेवन करने से बचें। दूध का सेवन अवश्य करें। मोटापा व कब्ज कम करने के लिये आहार योजना बनानी चाहिये। तला-भुना और मसालेदार खानों से परहेज करें। सलाद और हरी सब्जी का सेवन ज्यादा करें। शराब और धूम्रपान से परहेज करें। प्रोटीन, विटामिन सी, कैल्शियम और फास्फोरस जिसमें ज्यादा हो वैसे ही भोजन करें।
2. घरेलू उपाय: गर्म और ठंडे पानी की पट्टी (Hot and Cold Compress) – गर्दन/कमर के प्रभावित क्षेत्र जहां दर्द हो और कड़ापन महसूस होता हो वहां पहले गर्म पानी और बाद में ठंड़े पानी की पट्टी से दबाव डालें। गर्म पानी की पट्टी से ब्लड सर्कुलेशन तेज होगा और मांसपेशियों का खिंचाव कम होगा और दर्द से राहत मिलेगी। ठंडे पानी की पट्टी से सूजन कम होगा। गर्म पानी की पट्टी 2 से 3 मिनट तक रखें और ठंडे पानी की पट्टी 1 मिनट। इसे 15 मिनट पर दोबारा करें।
सेंधा नमक की पट्टी या स्नान (Epsom Salt Bath) – नियमित रूप से सेंधा नमक की पट्टी या इससे स्नान करने से स्पांडिलोसिस के दर्द में काफी आराम मिलता है। सेंधा नमक में मैग्नेशियम की मात्रा ज्यादा होने से यह शरीर के पीएच स्तर को नियंत्रित करता है और गर्दन/कमर की अकड़ और कड़ेपन को कम करता है। आधे ग्लास पानी में दो चम्मच सेंधा नमक मिला कर पेस्ट बना लें और उसे गर्दन के प्रभावित क्षेत्र में लगाएं, थोड़ी देर के बाद काफी राहत मिलेगी या गुनगुने पानी में दो कप सेंधा नमक डाल कर रोजाना स्नान करें, काफी फायदा मिलेगा।
लहसुन (Garlic) – लहसुन में दर्द निवारक गुण होता है और यह सूजन को भी कम करता है। सुबह खाली पेट पानी के साथ कच्चा लहसुन नियमित खाएं, काफी फायदा होगा। तेल में लहसुन को पका कर गर्दन/कमर में मालिश भी किया जा सकता है, इससे दर्द काफी राहत मिलेगी।
हल्दी (Turmeric) – हल्दी असहनीय दर्द को चूसने में सबसे कारगर साबित हुई है। इतना ही नही यह मांसपेशियों के खिंचाव को भी ठीक करता है। एक ग्लास गुनगुने दूध में एक चम्मच हल्दी डाल कर पीएं, दर्द से निजात मिलेगी और गर्दन की अकड़ भी कम होगी।
तिल के बीज (Sesame Seeds) – तिल में कैल्शियम, मैग्नेशियम, मैगनीज, विटामिन डी काफी मात्रा में पाई जाती है जो हमारे हड्डी और मांसपेशियों के सेहत के लिए काफी जरूरी है। स्पांडिलोसिस के दर्द में भी तिल काफी कारगर है। तिल के गर्म तेल से गर्दन/कमर की हल्की मालिश 5 से 10 मिनट तक करें, फिर वहां गर्म पानी की पटटी डालें, काफी आराम मिलेगा, गर्दन/कमर की अकड़ कम होगी।
हरीतकी (Terminalia chebul) – सुबह शाम भोजन के बाद थोड़ी मात्रा में हरीतकी खाएं, दर्द से निजात मिलेगी और गर्दन/कमर की अकड कम होगी।
3. नियमित व्यायाम (Regular Exercise): अगर आप नियमित रूप से गर्दन/कमर और बांह की कसरत करते रहें तो स्पांड़लाइटिस के दर्द से आराम मिलेगा। अपने सिर को दाएं-बाएं कंधे पर बारी-बारी से झुकाएं। दस मिनट तक यह व्यायाम रोजाना 2 से 3 बार करें। काफी आराम मिलेगा। आप हल्के एरोबिक्स जैसे स्वीमिंग भी आधे घंटे तक रोज कर सकते हैं, इससे गर्दन की स्पांडीलोसिस में आराम मिलेगा। इसके व्यायाम में योगासन का महत्वपूर्ण स्थान है। स्थूलता का रोगी यदि स्पांडिलाइटिस से ग्रस्त हो तो धनुरासन, भुजंगासन व नौकासन करें। इसके अलावा पाद संचालन, शरीर संचालन, गर्दन का संचालन, संधि संचालन, उत्तान हस्तपादासन, गोमुखासन इत्यादि आसन करें। गृध्रसी रोगियों के लिए योगासन बहुत लाभकारी होते हैं। सूर्य नमस्कार, भुजंगासन, चक्रासन, कोणासन, अर्धमत्येन्द्रासन, नौकासन, मकरक्रीडासन, शवासन आदि के नियमित अभ्यास से लाभ होता है।
4. औषधि: सामान्यतः रीढ़ की हड्डी से संबंधित रोगों में पंचामृतलौह गुग्गुल व त्रयोदशांग गुग्गुल 1-1 सुबह-शाम, महारास्नादि काढ़ा व पुनर्नवासव 2-2 चम्मच के साथ नियमित 3 से 6 माह तक जारी रखना चाहिए। सुन्नता, ऐंठन, तीव्र दर्द होने पर बृहत वातचिंतामणि रस 1 ग्राम, समीर पन्नग रस 1 ग्राम, लाक्षादि गुग्गुल 5 ग्राम व एकांगवीर रस 5 ग्राम की 30 पुड़ियां बनाकर सुबह-शाम अश्वगंधारिष्ट व महारास्नादि क्वाथ 2-2 चम्मच के साथ नित्य लें।
5. पंचकर्म: इसके अंतर्गत स्नेहन, नाड़ी स्वेदन, बस्ति, पिंड स्वेद, पिंषिचल धारा, ग्रीवा-कटि धारा व बस्ति के उत्तम परिणाम मिलते हैं। पंचकर्म की उक्त सभी क्रियाएं पंचकर्म हॉस्पीटल में 7 से 21 दिन के कोर्स में की जाती है। स्पांडिलाइटिस में स्नेहन बस्ति, क्षीर बस्ति, मांसरस बस्ति, अभ्यंग, नाड़ी स्वेद, सर्वांग वाष्पस्नान, ग्रीवा-कटि धारा, पिंड स्वेद, सोना बाथ, सर्वांग तैलधारा, दुग्धधारा व पिंड स्वेद के उत्तम परिणाम मिलते हैं।
साइटिका रोग में पंचकर्म द्वारा शरीर के दोषों का निर्हरण और नाड़ियों का क्षोभ कम होता है। आचार्यों के अनुसार गृध्रसी के रोगी को विधिपूर्वक विरेचन और यदि दोष पाचन संस्थान के ऊर्ध्व भाग में हो, तो वमन कराएं। साथ ही विविध प्रकार की बस्तियों द्वारा चिकित्सा करनी चाहिए।
स्थानिक प्रयोग हेतु स्नेहन व स्वेदन सर्वाधिक उपयोगी हैं। यदि रीढ़ में तकलीफ है, गद्दी खिसकी है, अर्बुद (Tumor) है, तो रीढ़ पर मालिश कदापि न करें। पैरों और नितम्ब प्रांत में मालिश की जा सकती है। मालिश के लिए प्रसारिणी तेल, महानारायण तेल, दशमूल तेल, सहचर तैल, पंचगुण तेल, सप्तगुण तेल, महाविषगर्भ तेल, बला तेल, निर्गुण्डी तेल आदि बहुत उपयोगी हैं। वेदना से मुक्ति के लिए दशमूल पाउडर, हल्दी, मेथी, सहिजन की छाल, धतुर के पत्ते, एरंडी के पत्ते, निर्गुण्डी के पत्ते, शेफाली (सम्भालू) के पत्ते, बला के पत्ते एवं जड़ आदि का प्रयोग किया जा सकता है।
सावधानियां
- जीवनशैली में बदलाव लाएं।
- पौष्टिक भोजन खाएं, विशेषकर ऐसा भोजन जो कैल्शियम और विटामिन डी से भरपूर हो।
- सर्वाइकल कॉलर गर्दन में व लंबर बेल्ट कमर में लगा कर ऑफिस या दुकान जाएं।
- धूम्रपान न करें और तंबाकू न चबाएं।
- पैदल चलने की कोशिश करें। इससे बोन मास (Bone Mass) बढ़ता है। शारीरिक रूप से सक्रिय (Active) रहें।
- हमेशा आरामदायक बिस्तर पर सोएं। ध्यान रखें कि बिस्तर न तो बहुत सख्त हो और या बहुत नर्म।
- चाय और कैफीन का सेवन कम करें।
- ऐसी मेज और कुर्सी का प्रयोग करें जिन पर आपको झुक कर न बैठना पड़े। हमेशा कमर सीधी करके बैठें।
- कहीं भी बैठते समय सीधे बैठने की आदत डालनी चाहिए। कम्प्यूटर पर काम करते समय इस बारे में विशेष ध्यान रखना चाहिए।
- गाड़ी चलाते समय भी सावधानी बरतना जरूरी है। बहुत तेजी से ड्राइव करने से भी हम इस रोग को आमंत्रण देते हैं।
इस प्रकार रीढ़ के विकारों से ग्रस्त रुग्ण पोषक आहार, घरेलू नुस्खे, आवश्यक व्यायाम, आयुर्वेदिक औषधि व पंचकर्म को अपनाकर इनसे राहत पा सकता है, उपरोक्त पंच सूत्री चिकित्सोपक्रम से अनेक रूग्णों को आश्चर्यजनक परिणाम मिलते हैं और उन्हें ऑपरेशन कराने की नौबत नहीं आती है। साथ ही इन विकारों से बचने के लिए सही जीवन पद्धति अपनाकर आहार व व्यायाम पर ध्यान देकर स्वस्थ रहा जा सकता है।
डॉ. जी. एम. ममतानी
एम. डी. (आयुर्वेद पंचकर्म विशेषज्ञ)
238, गुरु हरिक्रिशन मार्ग, जरीपटका, नागपुर
Ayurvedic treatment for spine diseases
On the occasion of World Spine Day, know about Ayurveda treatment of spine related disorders from Dr. Anju Mamtani….
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