सफेद दाग जिसे आयुर्वेद में श्वेत कुष्ठ या श्वित्र कहते हैं जो ‘श्वितावर्णे‘ धातु से श्वित्र शब्द बना है जिसका अर्थ होता है-त्वचा का वैकारिक रुप से सफेद हो जाना।सफेद दाग से शरीर को तो कष्ट नहीं होता जबकि इसकी वजह से मन बेहद दुखी व विचलित रहता है। रोगी सदैव हीन भावना से ग्रस्त रहता है, यही हीन भावना रोगी को मानसिक रूप से कमजोर कर देती है। आधुनिक चिकित्साशास्त्र के अनुसार यह ल्यूकोडर्मा (Leucoderma) या विटिलिगो (Vitilligo) कहलाता है। ल्यूको (Leuco) अर्थात सफेद व डर्मा (Derma) अर्थात त्वचा।

सफेद दाग के कारण

सफेद दाग की उत्पत्ति के अनेक कारण हैं। कोई एक कारण निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। कुष्ठ के कारणों में आयुर्वेद ने निम्न घटक बताए है।
1) विरूद्ध गुण वाले आहार का एक साथ सेवन जैसे दूध, मछली या दूध-दही, अचार-दूध इत्यादि
2) वमन,मल, मूत्र का वेग रोकने से
3) अति मात्रा में भोजन कर व्यायामादि करने से
4) अपचन में भोजन करने से
5) पंचकर्म के अयोग से
6) दिन में अधिक सोने से
7) पुज्यनीय व आप्तजन का अपमान करने से।
8) नवान्न, दही, मछली का अति मात्रा में सेवन करने से
9) प्लास्टिक तथा चमड़े के कार्य में प्रयुक्त होने वाले रसायनों के लगातार सम्पर्क में रहना, घटिया सौन्दर्य प्रसाधनों का इस्तेमाल आदि कारण सम्मिलित है।
10) फिरंग, ग्रेविस डिसीज, पारा विष, नाड़ी जन्य विकार या रीढ़ की हड्डी जन्य विकार या सेप्टिक फोकस आदि इस रोग को पनपाने में उत्तरदायी है।

ग्रंथों के अनुसार निम्न कारणों से भी सफेद दाग हो सकता है। पेट में कृमि, पुरानी कब्ज, लिवर की कमजोरी, कई बार पीलिया होना, पाचन क्रिया में गड़बड़ी, तेज मिर्च मसालेदार, चटपटे, खट्टे, नमकीन व तले भुने पदार्थों का अधिक सेवन, डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ, फास्ट फूड, कोल्ड ड्रिंक्स, अत्याधिक तनाव, जल जाना, शरीर मे बी कॉम्प्लेक्स की कमी, आहार में प्रोटीन व मिनरल्स की कमी, थायराईड रोग व मधुमेह से ग्रस्त रोगी को सफेद दाग की शिकायत मिल सकती है।

प्रायः आन्त्रविकार, स्वर यंत्र अथवा शरीर के किसी अवयव का विकार, नलिका विहीन ग्रंथियों का विकार, मानसिक आघात आदि कारणों से सफेद दाग उत्पन्न हो सकता हैं। स्थानीय प्रदाह, एक्जिमा, चोट या कपड़े का दबाव आदि के कारण सफेद दाग उत्पन्न होता देखा गया है। कितने ही रोगियों में संग्रहणी, पेचिश, मलेरिया, ज्वर, जिसमें यकृत, प्लीहा की अधिक वृद्धि हो गई हो, टाइफाइड ज्वर आदि रोगों के कुछ दिनों बाद भी सफेद दाग होने का इतिहास मिलता हैं।

अन्य कारण

भिन्न-भिन्न त्वचा गत् रोगों के लिए बाजार में उपलब्ध मलहम का प्रयोग करने से, भोजन में पौष्टिक आहार का अभाव, आधुनिक सौंदर्य प्रसाधनों का अति प्रयोग, सोरीयासिस इत्यादि का समावेश होता है। कभी-कभी पेट में कृमि होने के कारण विशेषतः चेहरे पर सफेद दाग दिखाई देते हैं। यह सफेद दाग कृमि नाशक औषधियों से ठीक हो जाते है।

सफेद दाग का रोग वंशानुगत या छूत का रोग नहीं हैं पंरतु 20-30% तक वंशपरपंरा से भी होता हैं। यह रोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भी नहीं फैलता है।

आधुनिक मत

आधुनिक मतानुसार भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में शरीर की त्वचा का वर्ण मेलेनिन पिगमेंट की वजह से भिन्न-भिन्न होता है।यह मेलेनिन पिगमेंट (रंजक द्रव्य) मिलेनोसाईट नामक कोशिकाओं में निर्मित होता है। यह पिगमेंट उष्मा का नियंत्रण भी करता है।

त्वचा की परत एपिडर्मिस में पायी जाने वाली मेलेनोसाइट कोशिकाओं में मेलेनिन नामक रंजक उत्पन्न होता है। मेलेनोसाइटस कोशिकाओं में टायरोसिन नामक एक एमीनो एसिड़ पाया जाता है जो मेलेनोसाइट कोशिकाओं को मेलेनिन नामक रंजक पदार्थ को सामान्य रुप में उत्पन्न करने में मदद करता है। टायरोसिन नामक एमीनो एसिड़ दूध के केसीन नामक प्रोटीन में काफी मात्रा में रहता है। टायरोसिन की सक्रियता सूर्य की अल्ट्रा वॉयलेट किरणों, एस्कॉर्बिक एसिड या विटामिन ‘सी और तांबे के प्रति अति संवेदनशील होती है और उनके प्रभाव से ही मेलेनिन का उत्पादन नियंत्रित रहता है। अग्र पिट्यूट्री ग्रन्थि के मेलेनोसाइट स्टीम्यूलेटिंग हार्मोन (MSH) द्वारा भी मेलेनिन का उत्पादन सीधे रुप से प्रभावित होता है। यदि यह टायरोसिन असक्रिय अवस्था में रहता है तो त्वचा की मेलेनोसाइट कोशिकाएं अपना सामान्य कार्य अर्थात मेलेनिन का उत्पादन नही कर पाती। जिससे उन कोशिकाओं में मेलेनिन की कमी होने लगती है। त्वचा के जितने हिस्से में मेलेनिन का अभाव होता है वहा सफेद दाग दिखाई देता है यदि पूरे शरीर की त्वचा में मेलेनिन का अभाव हो तो उस व्यक्ति का पूरा शरीर सफेद दिखाई देता है। जब किसी व्यक्ति में टायरोसिन की मात्रा बिल्कुल भी उत्पन्न नहीं होती है तो उसकी त्वचा जन्म से ही श्वेत वर्ण की बनी रहती है। श्वेत वर्ण की त्वचा वाले लोगों को एल्बिनिज्म कहा जाता है। सफेद दाग का रोग आनुवांशिक भी होता है।

श्वित्र के भेद

1) व्रणजन्य (आगंतुज)  2) दोषज

1) व्रणजन्य (आगंतुज): अचानक शरीर का कोई अंग अग्नि आदि से जल जाने पर उसमें प्लोप बन जाते है तब उनके उपचार होने पर भी कई बार जले स्थान पर सफेद रंग के दाग बन जाते हैं जो कि स्थायी ही रहते है, ऐसा श्वित्र व्रणज होता है। 

2) दोषज: आयुर्वेदानुसार विपरीत गुण के आहार का सेवन करने से दोष विकृति होकर श्वित्र रोग का प्रादुर्भाव होता है। रक्त, मांस और मेद यह तीनों धातु इसके अधिष्ठान होते हैं ।

आयुर्वेदानुसार सफेद दाग का वर्णन कुष्ठ के अंतर्गत आता हैं पर यह कुष्ठ से सर्वथा भिन्न है आयुर्वेदानुसार इसमें त्वचा का रूप बिगड़ जाता है। इसके मुख्यतः तीन भेद है 1. दारूण 2. वारूण 3. श्वित्र।

यह कुष्ठ रक्त के आश्रय से रहता हैं वह ताम्र वर्ण का होता है, तब वह दारूण कहलाता है और जब कुष्ठ मांस के आश्रय मे रहता है व आसण वर्ण का होता है तो उसे वारूण कुष्ठ कहते हैं। जब कुष्ठ मेदधातु में आश्रित रहता है व श्वेत वर्ण का होता है तब उसे श्वित्र कहते हैं।
 
लक्षण

सफेद दाग शरीर में कहीं भी प्रकट हो सकता है । सामान्यतः होठ, मुख, घुटना व कोहनी, अंगुलियों, जननेन्द्रिय के आस-पास पर अधिक प्रमाण में मिलते है। पहले ये धब्बे छोटे होते है जो बाद में धीरे-धीरे बढ़ जाते हैं कभी-कभी इतने बढ़ते है कि बीच-बीच में धब्बों के रूप में त्वचा का वास्तविक वर्ण दिखाई देता है।

आयुर्वेदानुसार त्वचा में स्थित भ्राजक पित्त ही त्वचा को वर्ण व आभा प्रदान करता है उसकी विकृति या अल्पता ही श्वेतकुष्ठ के रूप में दृष्टिगोचर होती है। प्रारम्भ में त्वचा का रंग फीका पड़ता है फिर क्रमशः यह भाग रंगहीन हो जाता है। श्वेत कुष्ठ में आंरभ में छोटे-छोटे, गोल-गोल सफेद धब्बे होते है अधिकांशतः यह धब्बे हाथ, छाती व मुंह पर शुरू होते है। यह दूध के समान सफेद होता हैं किसी-किसी सफेद दाग में लाल आभा होती है। श्वेतकुष्ठ में स्त्राव, कृमि व संज्ञानाश नहीं होता है। यह आनुवंशिक भी नहीं हैं परंतु यदि बीज दोष है तो जन्मतः हो सकता है। श्वेतकुष्ठ के लक्षणों में रूक्षता, खुजली, जलन, रोम नष्ट होना, त्वचा विवर्ण होना इत्यादि लक्षण मिलते है। इस रोग में शरीर पर कोई भी विपरीत परिणाम नहीं होता है परंतु यदि संपूर्ण शरीर पर सफेद दाग हो गए हों तो सूर्य की धूप की वजह से चमड़ी पर जले हुए फफोले आते हैं। किसी-किसी रोगी का अधिकांश शरीर इन सफेद दागों से भर जाता है यहां तक कि बाल भी सफेद होते है। श्वेत कुष्ठ से पीड़ित रोगी की त्वचा सूर्य की धूप और आग के प्रति अति संवेदनशील होती है।

श्वेत कुष्ठ वाली त्वचा पर रसायनों का असर भी तेजी से होता है। श्वेत कुष्ठ से ग्रस्त व्यक्ति के शरीर में विटामिन ‘डी‘ के निर्माण की प्रक्रिया भी कुछ हद तक बाधित होने लगती है और शरीर में रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता भी धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगती है तथा उन्हें कई तरह के संक्रामक रोगों के प्रति संवेदनशील बना देती है।

चिकित्सा
श्वेतकुष्ठ अत्यंत भयंकर असाध्य रोग समझा जाता है। पर वैज्ञानिक दृष्टि से यह सहज साध्य रोग है पर सबसे महत्वपूर्ण बात इसमें धैर्य की आवश्यकता होती है। कम से कम 1 वर्ष की चिकित्सा के पश्चात शरीर गत त्वचा सामान्य त्वचा की पूर्ववत दिखाई देने लगती है। जब अंगुलियों की नोक, हथेली, तलवे, होंठ इत्यादि सफेद हो जाते है तो उपचार में लंबा समय लग जाता है। पूरा शरीर सफेद हो जाने पर रूग्ण के ठीक हो जाने की संभावना अत्यंत अल्प रहती है। जब धब्बे शुरूआत में दो, तीन इंच तक फैले हो तो उपचार ठीक होते है। 

आयुर्वेद चिकित्सा
आयुर्वेद चिकित्सा की शुरुआत प्रायः लंघन या उपवास कराने के बाद होती है। श्वेत कुष्ठ की चिकित्सा लम्बे समय तक चल सकती है इसलिए आयुर्वेद चिकित्सक के निर्देशानुसार ही धैर्य पूर्वक चिकित्सा करानी चाहिए। पथ्यापथ्य का पूर्ण रुप से पालन करते हुए ही चिकित्सा करानी चाहिए।  
 
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में आजकल सफेद दाग की चिकित्सा में ऑपरेशन भी किया जाने लगा हैं। इसमें रोगग्रस्त हिस्से को छिलकर वहां से त्वचासहित कुछ अंश निकाल दिया जाता हैं फिर शरीर के अन्य भाग से स्वस्थ त्वचा निकालकर उस स्थान पर प्रत्यारोपित कर दी जाती है। यह ऑपरेशन अत्यंत खर्चीला है। कभी-कभी ऑपरेशन किये भाग पर पुनः सफेद दाग निकल आते है। पुनः निकलने पर स्थिति और जटिल हो जाती है।इसके अलावा कोशिका पर भी किया जाता है, जिसे कोशिका प्रत्यारोपण (CelI Transplantation) कहते है। इससे मिलेनोसाइट सैल (Melanocyte Cell)  को  प्रत्यारोपित कर रूग्ण का उपचार किया जाता है। यह भी खर्चीली प्रकिया है  इस पर आगे शोध जारी हैं। 

आयुर्वेद में सफेद दाग की चिकित्सा विस्तृत रूप से बताई गयी है। यदि रूग्ण ने धैर्य पूर्वक सकारात्मक सोच के साथ इस चिकित्सा को अपनाया तो प्रभावी लाभ मिलता हैं। आयुर्वेद चिकित्सा के अंतर्गत निम्नलिखित उपक्रमों का समावेश होता हैं।
1) आहार चिकित्सा 2) आयुर्वेदिक औषधि 3) पंचकर्म-वमन, विरेचन,बावचीयुक्त तक्रधारा 4) नैचरोपेथी 
 
आहार चिकित्सा

रोगी का आहार सात्विक व शुद्ध शाकाहारी होना चाहिए। आहार में कच्ची सब्जियों का प्रयोग अधिकतम मात्रा में करें। सलाद और अंकुरित अनाज का उपयोग भी हितकर हैं। सफेद दाग होने पर बथुए का रस तथा बथुए की सब्जी भी रोगी को लाभ प्रदान करती है। अंकुरित अनाज जैसे- काले चने को त्रिफला चूर्ण के साथ पानी में भिगो दें। सुबह उठकर ये चने सेवन करें। ताजा फलों का सेवन करें। प्रतिदिन कुछ समय धूप में बैठें। तांबे के बर्तन में रखा पानी पीने के उपयोग में लायें। प्रसन्न चित्त रहें।

पथ्य

गेहूं, चना, पुराने चावल, मूंग, अरहर, परवल, लौकी, पालक, नीम के पत्ते, पुनर्नवा के पत्ते, गाय का घी, मधु, मूली, सैंधव नमक, आँवला, करेला, काजू, मूंगफली, सरसों का तेल आदि का सेवन करना चाहिए। श्वेत कुष्ठ में लवण वर्जित आहार का प्रयोग किया जाता है। इस रोग में उपवास लाभप्रद है।अतः सामर्थ्य अनुसार उपवास करना चाहिए, उपवास के समय नींबू पानी का सेवन करना चाहिए तथा उसके बाद फलों का रस पीना चाहिए। चिकित्साकाल में स्नान तथा ब्रम्हचर्य का पालन अवश्य करना चाहिए।

सुबह सूर्यप्रकाश में बैठना आवश्यक हैं। शरीर के जिस भाग पर सफेद दाग हैं वह सूर्यकिरण के संपर्क में रहें। हमेशा मन में सकारात्मक भाव रहें, पॉजिटि़व सोचें पॉजिटि़व ही होगा।

अपथ्य

नमक (सैंधव नमक का प्रयोग किया जाता है), विषम भोजन, देर से पचने वाला भोजन, मछली, कटहल, दही, भैंस का दूध, दूध से बने पदार्थ, मुख्यतः सफेद पदार्थ, मदिरा, गुड, गरम मसाला, उड़द की पीठी, तेज धूप, दिन में सोना तथा मैथुन का त्याग कर देना चाहिए। जिन कारणों के सेवन से श्वेत कुष्ठ होता है उन सबका त्याग कर देना चाहिए। सबसे जरुरी है कि इसकी चिकित्सा बड़े धैर्य के साथ करानी चाहिए।

नमक, खट्टे पदार्थ, गुड, उड़द दाल, तिल, अचार, पापड़, मांसाहार व फरमंटेड पदार्थ (इडली, ढोकला) न खाएं। रात का खाना हल्का लें।

आयुर्वेद औषधि

सफेद दाग की औषधि चिकित्सा में बावची इस काष्ठौषधि का परिणाम प्रभावी पाया गया है। इससे निर्मित अनेक औषधियां प्रचलित है। आयुर्वेदिक औषधि में आरोग्यवर्धिनी 5 ग्राम, कैशोर गुग्गुल 5 ग्राम, स्वर्णमाक्षिक 5 ग्राम, मंडूर भस्म 5 ग्राम, कृमिकुठार रस 5 ग्राम, रसमाणिक्य 2.5 ग्राम की 60 पुड़ियां बनाकर सुबह-शाम खाली पेट लें। साथ में महामंजिष्ठादि 2 चम्मच, विडंगारिष्ट 2 चम्मच पानी 4 चम्मच के साथ लें।

शशिलेखा वटी- शुद्ध पारद 1 भाग तथा शुद्ध गंधक 1 भाग (दोनों की कज्जली ) तथा ताम्र भस्म 1 भाग मिलाकर बावची के काढ़े के साथ 1 दिन तक घोटे और वटी बनाएं। इसके बाद इसमें से 4 रत्ती की मात्रा प्रतिदिन सेवन करें। यह शशिलेखा वटी श्वित्र को नष्ट करती है। इस वटी को खाने के बाद बावची का तेल 10 ग्राॅम शहद मिलाकर पिएं। (योगरत्नाकर)

अन्य औषधियां चिकित्सक के परामर्शानुसार लें।

पंचकर्म

सफेद दाग के रोगी को औषधि लेने के पूर्व पंचकर्म से शरीर शुद्धि अवश्य करना चाहिए। श्वेतकुष्ठ में भ्राजक पित्त की विकृति है अतः पंचकर्म के अंतर्गत इसमें वमन, विरेचन, जलोकावचरण व अग्निकर्म परिणामदायक पाया गया है। आभ्यंतर स्नेहपान के रूप में महातिक्त घृत का प्रयोग आचार्य सुश्रत ने लाभदायक बताया है। वमन कर्म में उर्ध्व मार्ग से दोषों का हरण करते हैं। वमन के लिए मदनफल, मुलेठी का चूर्ण शहद का प्रयोग करना चाहिए। विरेचन द्वारा अधोमार्ग से दोषों का हरण करते हैं। विरेचन के लिये हरड़ चूर्ण या निशोथ का चूर्ण या अमलतास का गूदा प्रयोग करें। अष्टांगहृदय के अनुसार पुरीषजन्य कृमियो में निरंतर बस्ति व विरचेन दें। चरक संहिता के अनुसार विरेचन के लिए कठगूलर का रस व गुड़ का प्रयोग करना चाहिए उसके बाद तीन दिन तक धूप का सेवन करें। साथ ही लगातार 2 माह तक बावची युक्त तक्रधारा इस चिकित्सोपक्रम को करें। जलौकावचरण के द्वारा दूषित रक्त को शरीर से बाहर निकाला जाता हैं। सफेद दाग पर जलौका (स्ममबी) लगाकर अशुद्ध रक्त को बार निकाला जाता हैं। अग्निकर्म में पंच धातु से बनी शलाका को तपाकर सफेद दाग पर चटके दिए जाते हैं तत्पश्चात हरिद्रा चूर्ण से ड्रेसिंग की जाती हैं।

नैचरोपेथी

नैचरोपेथी के अंतर्गत सूर्यकिरण चिकित्सा का अत्यंत महत्व हैं। इसमें अल्ट्रावायलेट किरणों की आवश्यकता होती है जिससे मिलेनोसाइट पेशियां में मेलेनिन पिगमेंट (रंजक द्रव्य) बनाती हैं। सफेद दाग के लिए रोगी नित्य प्रायः काल सूर्यकिरण चिकित्सा के आधा घंटा पश्चात ठंडे पानी का कटिस्नान 2 बार परिणामदायक हैं।

अनुभूत घरेलू उपचार (अंतः प्रयोग)

1) काले रंग की गाय का मूत्र एक बोतल में भरकर लायें। किसी मिट्टी के घड़े या बर्तन में बावची के बीजों को गोमूत्र से भिगों दे। तीन दिन तक भिगोए रखने के बाद जब बावची भिगकर फूल जाए और बावची अपने में गोमूत्र सोख लें तब बावची के बीजों को निकाल कर पीसकर या खरल में बारिक कर लें। बावची के बीजों को पीसते-पीसते या खरल करते-करते जब खूब बारीक हो जाए तो उसकी चने के बराबर गोलियां को किसी साफ बोतल में सुरक्षित रख लें। एक गोली सुबह खाली पेट और एक गोली शाम में चार बजे खाली पेट पानी के साथ लें।

2) काले तिल, भृंगराज, मिश्री तथा बाकुची का समभाग चूर्ण लगभग एक साल तक आन्तरिक सेवन प्रयोग आयुर्वेद में बताया गया है। इससे सफेद दाग दूर होने के साथ बाल भी काले हो जाते है।

3) बावची 1 पाव, मेहंदी के बीज 1छटांक, चित्रक के जड़ की छाल 1 तोला, उपयुक्त तीनों चीजों को कुटकर छान लें। इसे तीन माशा सुबह और तीन माशा शाम को ताजे जल के साथ सेवन करें।

4) सफेद दाग के रोग आयुर्वेद की प्रमुख वनस्पति बावची निस्संदेह विशिष्ट औषधि हैं परन्तु यह शुष्क और गर्म होती हैं। अतः इलाज के साथ देशी घी खाते रहना चाहिए ।

5) खदिर के जल का पान करना श्वेत कुष्ठ की उत्तम औषधि है।

6) नीम की दस कोमल पत्तियां प्रतिदिन प्रातःकाल अच्छी तरह चबाकर एक घूंट पानी के साथ सेवन करें अथवा ग्रीष्म में निम्बोली को लेकर अन्दर की गिरी का चूर्ण बनाकर दिन में दो बार 1-1 चम्मच और डेढ़ चम्मच बूरा या शक्कर मिलाकर जल से सेवन करें।

7) काली तुलसी के ग्यारह पत्ते पीसकर गोली बनाकर प्रतिदिन प्रातः बासी पानी के साथ सेवन करें।

8) देवदारू, कृतमाल चित्रक, आक, सत्यानाशी, रेवंदचीनी, हल्दी, इंद्रायण की जड़, त्रिफला समभाग चूर्ण बना लें। इसे 1/4 चम्मच की मात्रा में सुबह-शाम पानी से लें व इसी को गोमुत्र के साथ घोट कर दाग पर लगाएं। इस दौरान खट्टे पदार्थ का सेवन न करें।

9) कत्था और आंवला 1-1 तोला लेकर काढ़ा बनाएं, उसमें बावची बीजों का चूर्ण डालकर नित्य पीने से श्वेत कुष्ठ में लाभ होता हैं।

10) बावची, त्रिफला, चित्रक की जड़, शतावरी, सम्भालू की जड़ में पैदा होने वाली हल्दी जैसी पीली गांठ़, असगंध और नीम का पंचांग, ये सब 50-50 ग्राम लेकर सबका बारीक पावडर बना लें व कपड़छान करके साफ डिब्बे में रखें। इस दवा को 1-1 चम्मच की मात्रा में नियमित रूप से प्रयोग करने से सफेद दाग कुछ ही दिनों में मिट जाते हैं

11) आयुर्वेद में ऐसी वनौषधियों का वर्णन हैं जो त्वचा का पिग्मेंटेशन बढ़ाती है और भ्राजक पित्त का चयापचय ठीक करती है। उदा. वाकुची, मंजिष्ठा, नीम, कृष्ण सारिवा (Indian Sarasaparilla / Cryptolepis buchanani) or गोपावली (Ichnocarpus frutescens/ Black creeper) इत्यादि।

12) सफेद दाग के लिए कोकोदुंबर के फल उत्तम औषधि है। ये फल समान मात्रा में गुड़ या शहद के साथ सेवन करें।

13) वर्धमान बावची प्रयोग – 2 कप दूध व 2 कप पानी लेकर 1 बावची का बीज डालें व 1 कप रहने तक उबालकर छान ले तथा सुबह खाली पेट सेवन करें। इस तरह हर रोज एक बावची का बीज बढ़ाते जाए। सामान्य‘ बीस तक बीज बढ़ाएं। शरीर गरम न होने पर या पित्त की तकलीफ न होने पर और बीज बढ़ा सकते है। उसके पश्चात हर रोज एक बीज कम करते-करते अंत में एक बीज पर आएं। इस वर्धमान क्रम के बावची प्रयोग से सफेद दाग के स्थान पर प्राकृत वर्ण दिखाई देता है।

14) बावची छाल, आमलकी व खैर की छाल सम प्रमाण में उसका काढा बनाएं व 4-4 चम्मच सुबह शाम सेवन करें।

15) बावची बीज चूर्ण 100 ग्राम, भृगंराज चूर्ण 50 ग्राम, चित्रक मूल चूर्ण 50 ग्राम, हरितकी चूर्ण 50 ग्राम, अश्वगंधा चूर्ण 50 ग्राम, ताम्रपर्पटी 20 ग्राम, हरताल भस्म लेकर एकत्र मिलाएं व 2-2 ग्राम की मात्रा में दिन में 3 बार सेवन करें।

16) हरताल, गंधक तथा फिटकरी को जल में पीसकर श्वेत कुष्ठ वाले स्थानों पर लगाने से लाभ होता है। कठगूलर की छाल, बाकुची के बीज, चित्रक, गो मूत्र में पीसकर श्वेत कुष्ठ में लेप लगाने से लाभ होता है। मूली के बीज भी सफेद दाग में हितकर है। लगभग 30 ग्राम बीज सिरका में घोलकर पेस्ट बनाकर सफेद दाग पर लगाते रहने से लाभ होता है।

17) कृमिनाशक पेया (अष्टांगहृदय) – विडंग, पिप्पली, मरिच, पिप्पलीमूल, सहजन,सज्जीक्षार व तक्र से बनाई यवागू पीयें।
एक अनुसंधान के अनुसार काली मिर्च में एक तत्व होता है – पीपराईन। यह काली मिर्च को तीक्ष्ण मसाले का स्वाद देता है। काली मिर्च के प्रयोग से त्वचा का रंग वापस लौटाने में मदद मिलती है। सफेद दाग रोगी में विटामिन B-12 और फोलिक एसीड की कमी पाई जाती है। अतः इनके सप्लीमेंट लेना आवश्यक है। साथ ही काॅपर और झिंक तत्व के सप्लीमेंट भी लेना चाहिए।

अष्टांगहृदय के अनुसार

1) सफेद दाग वाले अंग पर छाले उत्पन्न होने पर उनको कांटे से फोड़ दे। छालों के बह जाने पर प्रतिदिन सुबह तीन दिन तक कठगुलर, असन, प्रियंगु, सौेफ को पानी में काढा बनाकर पियें अथवा पलाश क्षार में राब मिलाकर बल के अनुसार खाएं।

2) कठगुलर, बहेड़ा, कुडे की छाल इनके काढ़े में बावची का कल्क मिलाकर पियें। फिर धूप में बैठने से जो छाले उत्पन्न हो उनको फोड़कर ताक के साथ बिना नमक का भोजन करें।

3) गोमूत्र में चित्रक, त्रिकटू इनको शहद में मिलाकर घी के घड़े में रख देना चाहिए। 15 दिन के बाद श्वेत कुष्ठ का रोगी इसे पियें।

बाह्य प्रयोग

1) बाकुची के बीज तथा तेल का उपयोग चिकित्सा में किया जाता है। श्वेत कुष्ठ से प्रभावित स्थान पर बाकुची तैल का लेप करके सुबह तथा शाम सूर्य की किरणों को खुली त्वचा पर 10 मिनट तक पड़ने दिया जाता है। कभी-कभी इसके प्रयोग से सफेद दाग वाली त्वचा पर फफोले पड़ जाते है। इन फफोलों को विसंक्रमित सूई से भेदकर सफेद त्वचा को निकाल दिया जाता है। कुछ दिनों तक इस पर तेल का प्रयोग नहीं करना चाहिए तथा घाव के ठीक होने पर पुनः इसका प्रयोग करना चाहिए। घाव पर नीम का तेल लगाने पर धीरे-धीरे त्वचा में स्वाभाविक वर्ण उभरने लगता है। यह उपचार किसी योग्य आयुर्वेद चिकित्सक की देखरेख में ही करना चाहिए।
2) जायफल 1 तोला, गेरू 1 तोला, बावची चूर्ण 1 तोला, काली मिर्च 3 माशा-चारों चीजों को कुटकर छानकर, पान में खाने के चूने के निथरे हुए पानी में तीन घंटे घोटकर बेर के समान गोली बनाकर छाया में सुखाकर रख लें। उसके बाद बछिया के मुत्र में सुखी गोली को घिसकर सुबह स्नान के बाद रात को सोते समय सफेद दाग पर लगाएं।
3) श्वित्रा में शिलादि लेप – मैनसिल तथा अपामार्ग का भस्म समभाग, को एक साथ पीसकर लेप करने से श्वित्र को नष्ट करता हैं। यदि इसमें अर्जुनवृक्ष की जड़ की छाल का चूर्ण मिलाकर लेप किया जाएं तो श्वित्र को अवश्य नष्ट करता हैं।(योगरत्नाकर)
4) श्वित्रा में ज्योतिष्मती तेल – अपामार्ग क्षार के जल के साथ मालकांगनी तेल को 7 बार पाककर तथा छान कर लगाने से श्वित्र को नष्ट करता हैं।(योगरत्नाकर)
5) गोमूत्र में बाावची के बीजों को पीसकर गाढ़ा-गाढ़ा लेप बनाकर सफेद दागों पर लेप करें। इस लेप को नित्य सुबह गोमूत्र से धो डाले और फिर नया लेप करें। केवल रोग ग्रस्त भाग पर अर्थात सफेद दागों पर ही यह लेप करें। यह बहुत ही लाभदायक हैं परंतु कई प्रकृति के रोगी जिनकी त्वचा बहुत ही नरम होती है इसके प्रयोग से उनकी त्वचा में छाले पड जाते है अतः इस लेप को सावधानी से लगाएं । छाले होने पर शुद्ध घी में कपूर मिलाकर उपर से लेप करे इससे जलन और घाव शीघ्र मिट जाते है।
6) बावची, नीम, चाल मोगरा और चंदन का तेल चारों को सम मात्रा में मिलाकर भी लगा सकते है। 6) सफेद दाग पर नीम का तेल लगाने से और नीम की पत्तियां उबालकर बनाए गए नीम के पत्तों से रोजाना स्नान करते रहने से श्वेत कुष्ठ दूर होता हैं।
7) सफेद दागों पर तुलसी का रस मलते रहने से वे कुछ समय में मिट सकते है।
8) बावची बारीक पिसी कपड़छान की हुई 100 ग्राम, गोमूत्र 500 मि.लि, सरसों तेल 100 मि.लि इनको एक लोहे के पात्र में डालकर धीमी आंच पर पकाएं। जब मरहम जैसा हो जाए आग से नीचे उतार ठंडा करके सफेद कुष्ठ के दागों पर लगाएं।
9) कंरज के बीज, नीम की जड़ की छाल तथा कनेर की जड़ को पीसकर पाउडर बना लें। इसे बावची तेल निम्ब तेल तथा तुवरक तेल में मिलाकर सफेद दागों पर लगाने से त्वचा सामान्य होने लगती है।
10) बावची, अमलवेतस, लाख, ऊदुमबर की छाल, पिप्पली, रसांजन, लोहचूर्ण व काले तिल समभाग लेकर उसमें गोमूत्र मिलाकर गोलियां बनाए व गोली को घिसकर सफेद दाग पर लगाएं।
11) बथुआ उबाल कर उसके पानी से सफेद दाग को धोये, बथुआ का रस दो कप निकाल कर आधा कप तिल का तेल मिलाकर धीमी आंच पर पकायें जब सिर्फ तेल रह जाए तो उतार कर शीशी में भर कर रख लेते है। इसे सफेद दागों पर लगातार लगाते रहने से लाभ होता है।
12) लहसुन के रस में हरड़ को घिसकर लेप करे तथा साथ-साथ सेवन भी करने से लाभ होता है। नीम की पत्ती, फूल, निंबोली, सुखाकर पीस लें प्रतिदिन लगभग 3 ग्राम की मात्रा में लेने से लाभ होता है। सफेद दाग वाला व्यक्ति नीम के नीचे जितना रहेगा उतना ही फायदा होगा, नीम खायें, नीम लगायें, नीम के नीचे सोएं जिसका लाभ सफेद दाग वाले व्यक्ति को मिलता है।
13) करंज, आक, अमलतास, थूहर और चमेली के पत्तो को गोमुत्र में पिसकर लेप करने से श्वेत कुष्ठ व अन्य कुष्ठ रोग ठीक होते है। (अष्टांगहृदय )
14) बावची बीज 4पल, हरताल 1 पल इनको गोमूत्र में पीसकर लगाने से सफेद दाग पर त्वचा का वर्ण आ जाता है। (अष्टांगहृदय )
15) चित्रक का प्रभावी प्रयोग – चित्रक मूल चूर्ण को 2-2 ग्राम लेकर उसमें आधा ग्राम आटा मिलाकर उसे थोड़ा पकाकर रूग्ण के सफेद दाग पर 2 बार लगाएं व खाने के लिए चित्रकमूल चूर्ण 200 मि.ग्रा. पानी के साथ भोजन के पूर्व लेने से लाभ होता है। यह चिकित्सा 6 माह से 1 वर्ष तक लेने से अच्छे परिणाम की संभावना होती है।

नोट: उपरोक्त दिये गए घरेलू उपचार सुविधानुसार 2-3 उपयोग में लाएं।

अतः उपरोक्त चिकित्सोपक्रम से सफेद दाग का रोगी छुटकारा पाता है क्योंकि औषधि, परहेज, योगाभ्यास, पंचकर्म व सकारात्मक सोच सफेद दाग को दूर करने में सफल सिद्ध होता है।

सफेद दाग जल्दी ठीक होनेवाला रोग नहीं है। अतः धीरज रखें। हिम्मत न हारें। शुद्ध व खुले वातावरण में रहें। मंत्र, तंत्र के चक्कर में न जाएं। रोगी को चोट से बचना चाहिए और बिना वजह एंटीबायोटिक दवाइयों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। प्लास्टिक के चप्पल जूते मत पहनें। महिलाएं माथे पर चिपकाने वाली बिन्दी और ओठों पर लगानेवाली लिपस्टिक का उपयोग न करें। औषधि लगातार चिकित्सक के मार्गदर्शन में 6 माह से 2 वर्ष तक लेनी पड़ सकती है। हर रूग्ण को 6 माह में ही लाभ हो जाएगा। ऐसा भी नहीं है। रोग की स्थिति के अनुसार कम-ज्यादा समय लग सकता है।

डॉ. जी.एम. ममतानी एम.डी.
(आयुर्वेद पंचकर्म विशेषज्ञ)
‘जीकुमार आरोग्यधाम’, 238,
नारा रोड, गुरु हरिक्रिशनदेव मार्ग,
जरीपटका, नागपुर-14
फोन : (0712) 2646700, 2646600, 3590400
9373385183 (Whats App)

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