हृदय शरीर का एक ऐसा महत्वपूर्ण अंग है जिसके बिना जीवन सम्भव नहीं है। हमारे शरीर में हृदय से रक्त को शरीर के विभिन्न अंगों में जो नालियां ले जाती हैं, उन्हें रक्त वाहिनियां कहते हैं। रक्तवाहिनी की दीवार पर पड़ने वाले पाश्र्विक दबाव को रक्त चाप या ब्लडप्रेशर कहते हैं। सामान्यतः रक्त एक निश्चित दबाव के साथ रक्त वाहिनियों में प्रवाहित रहता है। इस प्रकार रक्त वाहिनियों की दीवार पर रक्त का जो दबाव होता है उसे रक्तदाब या रक्तचाप या ब्लडप्रेशर कहते हैं। शरीर में रक्त का परिभ्रमण करते समय रक्तवाहिनियों पर पड़ने वाला दबाव सामान्य से ज्यादा हो जाता है उसे उच्चरक्तचाप या हाइपरटेंशन कहते हैं। हमारा हृदय एक मिनट में लगभग 72 बार धड़कता है जिसके कारण उसमें संकुचन एवं शिथिलन होता है हर धड़कन के साथ हृदय रक्तवाहिनियों द्वारा शुद्ध रक्त शरीर के अंगों में पहुंचता है जिससे रक्त की आपूर्ति शरीर में होती है।
हृदय के संकुचन काल में रक्तवाहिनियों पर पड़ने वाला रक्त का दबाव संकोच कालीन रक्तदाब (Systolic Blood Pressure) कहलाता है। एक सामान्य व्यक्ति में यह रक्तदाब औसतन 120mm Hg होता है। हृदय के दो संकुचन के बीच हृदय के शिथिलन की स्थिति में रक्त द्वारा रक्तवाहिनियों पर पड़ने वाला दबाव विश्रामकालीन रक्तदाब (Diastolic Blood Pressure) कहलाता है। यह सामान्य व्यक्ति में औसतन 80 mm Hg होता है। यह दोनों दबाव विभिन्न आयु तथा स्थितियों में थोड़ा परिवर्तित होता है। इस प्रकार एक निश्चित सीमा तक रक्त दबाव शरीर में जीवन जीने के लिए आवश्यक होता है। किसी कारणवश रक्तवाहिनियों पर पड़ने वाला रक्त का दबाव सामान्य से ज्यादा हो जाता है तो उसे उच्चरक्तचाप ( High B.P.) या हाइपरटेंशन कहते हैं। यदि रक्तवाहिनियों पर पड़ने वाला रक्त का दबाव सामान्य से कम होता है तो उसे निम्नरक्तचाप (Low B.P.) कहते हैं।
कुछ कारणों से ब्लड प्रेशर का सीधा सम्बन्ध हृदय से होता है यह ब्लडप्रेशर एक ही दिन में कई-कई बार परिवर्तित हो सकता है। जैसे-दौड़ना, व्यायाम करना, मानसिक रूप से तनाव ग्रस्त होना, चिन्ता, क्रोध, भोजन के उपरान्त आदि परिस्थितियों में ब्लड प्रेशर घटता-बढ़ता रहता है लेकिन यह वृद्धि या कमी सामान्यतः 5 & 10 mm Hg तक होती है। इसके अलावा आयु वृद्धि के साथ-साथ भी ब्लड प्रेशर में वृद्धि होती है इसलिए प्रत्येक आयु के लिए ब्लडप्रेशर अलग-अलग होता हैं स्त्रियों में पुरुषों की तुलना में ब्लडप्रेशर कम होता है। इसके अतिरिक्त रासायनिक तत्वों एवं कुछ दवाओं का भी ब्लड प्रेशर पर प्रभाव पड़ता है। ब्लडप्रेशर को मापने के लिए एक खास यन्त्र स्फिग्मो मीटर (Sphygmo-meter) का प्रयोग किया जाता है।
हाइपरटेंशन के कारण
अधिक समय तक मानसिक तनावग्रस्त रहने, चिन्ता, शोक, क्रोध, ईष्र्या आदि से रक्तवाहिनियां संकुचित हो जाती हैं जो हाइपरटेंशन का कारण बनती हैं। आयु बढ़ने के साथ-साथ धमनियों की दीवारों का लचीलापन भी कम हो जाता है और उन पर रक्त का दबाव बढ़ जाता है जिसके कारण उच्च रक्तचाप या हाइपरटेंशन हो जाता है। अनियमित जीवनशैली, ऐशो आराम की जिन्दगी, अधिक मात्रा में आहार का सेवन, शारीरिक श्रम का अभाव तथा व्यायाम आदि न करने तथा घी, मक्खन, मांस, मछली, चीनी, बेसन और मैदा से युक्त खाद्य पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन, फॉस्टफूड जिसमें अधिक मात्रा में कार्बोहाइड्रेट, वसा, शर्करा होती है आदि का अधिक प्रयोग करने से शरीर में कोलेस्टरॉल की मात्रा बढ़ती है जो धमनियों के अन्दर जमकर रक्त संचार में बाधा उत्पन्न करता है जिससे हाइपरटेंशन हो सकता है। भोजन में नमक का अधिक प्रयोग भी हाइपरटेंशन में अहम भूमिका निभाता है। अधिक नमक प्रयोग से रक्त में जलीय अंश बढ़कर ब्लडप्रेशर को बढ़ा देता है। तम्बाकू, शराब, चाय, कॉफी, भांग, गांजा आदि मादक पदार्थों का अधिक समय तक सेवन करते रहने से ब्लडप्रेशर में वृद्धि हो जाती है। हाइपरटेंशन का एक प्रमुख कारण वंशानुगत है। यदि किसी व्यक्ति के माता-पिता दोनों या दोनों में से एक हाइपरटेंशन से ग्रसित है तो उसकी सन्तान में हाइपरटेंशन होने की प्रबल संभावनाएं हैं। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में हाइपरटेंशन कम होता है लेकिन गर्भावस्था, मासिक धर्म होने के पश्चात प्रसव से पहले या बाद में हाइपरटेंशन हो सकता है। इसके अतिरिक्त गुर्दों में लम्बे समय तक संक्रमण या पथरी रहने पर भी हाइपरटेंशन हो सकता है। डायबिटीज, मस्तिष्क में ट्यूमर या अन्य प्रकार का रोग हो जाने पर भी हाइपरटेंशन हो सकता है।
आयुर्वेद के मूल सिद्धान्त के अनुसार रक्तवहन की क्रिया तथा हृदय की स्पन्दन क्रिया वायु द्वारा संचालित होती है। वायु ही सम्पूर्ण शरीर में फैली धमनी एवं सिराओं के माध्यम से रक्त को आगे बढ़ाती है। किसी कारण वश वायु का प्रकोप होने पर या वायु की वृद्धि होती है तो स्पन्दन क्रिया तथा रक्त की गति बढ़ जाती है। जिससे उच्च रक्तचाप या हाइपरटेंशन हो जाता है।
हाइपरटेंशन के लक्षण
शुरुआत में हाइपरटेंशन के कोई स्पष्ट लक्षण प्रकट नहीं होते हैं किन्तु पुराना होने पर तथा रक्तचाप या ब्लडप्रेशर स्तर के निरन्तर बढ़ते जाने से रोगी में कई प्रकार के लक्षण प्रकट होते है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब तक शरीर के अंगों का उचित मात्रा में रक्त मिलता रहता है तब तक कोई विशेष लक्षण नहीं मालूम होते हैं लेकिन जब सूक्ष्म धमनियों तथा हृदय की मांसपेशियों में क्षीणता आ जाती है तो अंगों को उचित मात्रा में रक्त नहीं पहुंच पाता है तब ब्लड प्रेशर में वृद्धि के लक्षण प्रकट होने लगते हैं किन्तु बहुत लोगों में ब्लड प्रेशर बढ़ जाने पर भी विशेष लक्षण नहीं उत्पन्न होते हैं। प्रारम्भिक हाइपरटेंशन के रोगी को अक्सर चक्कर आते है,सिर घूमता है, सुबह उठते ही सिर दर्द तथा मितली की शिकायत रहती है। किसी काम में मन नहीं लगता है, आलस्य बना रहता है, सोकर उठने पर भी ताजगी नहीं रहती है, नींद न आना, घबराहट, शारीरिक दुर्बलता, आत्मविश्वास की कमी, तनाव, चिड़चिड़ापन, गुस्सा ज्यादा आना, हाथ-पैरों में झुनझुनाहट, चेहरा लाल होना, छाती में दर्द, थोड़ा परिश्रम पर सांस फूलना, हृदय की धड़कन तेज होना आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। हाइपरटेंशन की गम्भीर स्थिति में सिर का दर्द स्थायी रूप ले लेता है और रात के समय सांस फूलने लगती है। रोगी को बार-बार मूत्रत्याग के लिए जाना पड़ता है। उल्टी आना, नाक अथवा मूत्र के साथ रक्त आना, दृष्टि के विकार, पैरों में सूजन आने लगना, वजन लगातार बढ़ते जाना, मैथुन शक्ति तथा स्मरण शक्ति में कमी आदि लक्षण उत्पन्न होने लगते हैं। कई बार कुछ भी लक्षण नहीं मिलते हैं और हाइपरटेंशन से अचानक ब्रेन हैमरेज या हार्टअटैक जैसे गम्भीर रोग भी हो जाते हैं इसलिए मनुष्य को समय-समय पर ब्लड प्रेशर की जांच अवश्य कराते रहना चाहिए तथा यथा समय उपचार कराना चाहिए। यदि समय पर हाइपरटेंशन का उपचार नहीं किया जाये तो इसका शरीर के विभिन्न अंगों पर दुष्प्रभाव पड़ता है। हाईब्लडप्रेशर या हाइपरटेंशन के कारण हृदय आकार में वृद्धि कर सकता है धमनी काठिन्यीकरण के कारण हृदय शूल (एन्जाइनापेक्टोरिस), हृदय विफलता (हार्टफेल्यौर), गुर्दों का फेल होना (किडनीफेल्यौर) आदि रोग उत्पन्न हो सकते हैं। गुर्दे हाइपरटेंशन के कारण धमनियों में आये संकरापन तथा स्थूलता से रक्त की सफाई ठीक से नहीं कर पाते हैं तथा उनकी कार्यक्षमता कम हो जाती है और अन्त में कार्य करना बंद भी कर सकते हैं। इस में रोगी को बार-बार मूत्र आता है तथा मूत्र के साथ एलब्यूमिन आता है जो रोगी की गम्भीर अवस्था का सूचक है। मस्तिष्क में हाइपरटेंशन के कारण अवरोध उत्पन्न हो जाता है जिससे रक्त वाहिनियों की दीवार क्षतिग्रस्त हो सकती है परिणामस्वरूप ब्रेनहैमरेज से पक्षाघात (लकवा) एवं यहां तक कि मृत्यु भी हो सकती है। रोगी को दौरे पड़ सकते हैं। नेत्र पर हाइपरटेंशन के उपद्रव स्वरूप आंखों का काला रहना, काला मोतिया या ग्लूकोमा आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। हाइपरटेंशन की स्थिति में आंखों को पोषण देनेवाली रक्तवाहिनियों की दीवारें संकरी हो जाती हैं इससे आंखों के पर्दे फट भी सकते हैं और उनकी रोशनी हमेशा के लिए जा सकती है इसलिए ईब्लडप्रेशर या हाइपरटेंशन के प्रति सचेत रहना अति आवश्यक है।
हाइपरटेंशन की चिकित्सा
आयुर्वेद अनुसार जिन कारणों से रोग हुआ है सबसे पहले उन्हें दूर करना चाहिए अर्थात उपरोक्त हाइपरटेंशन के कारणों को दूर करना चाहिए। हाइपरटेंशन के रोगी को मानसिक तनाव, क्रोध, चिन्ता आदि से बचना चाहिए। आहार कम मात्रा में तथा भूख से कम लेना चाहिए। डिब्बा बंद, बासी, ज्यादा तला हुआ, मिर्च-मसालेदार, ज्यादा नमक वाला खाना और दही का सेवन नहीं करना चाहिए। ऐसा भोजन करना चाहिए जिसमें प्रोटीन तथा सोडियम की मात्रा कम हो। ब्लडप्रेशर को बढ़ाने में नमक की अहम भूमिका है इसमें सोडियम तत्व ब्लडप्रेशर को बढ़ाने का काम करता है। इसलिए नमक का हाइपरटेंशन रोगी को कम से कम सेवन करना चाहिए, हो सके तो सेंधा नमक का प्रयोग करना चाहिए। इसके अलावा पोटेशियम की कमी से सोडियम का निष्कासन रुक जाता है और ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है इसलिए पोटेशियम युक्त पदार्थों जैसे केला, टमाटर, गाजर, सन्तरे का रस, पालक आदि का सेवन करके ब्लडप्रेशर को नियन्त्रित किया जा सकता है। कैल्शियम ब्लडप्रेशर को कम करने में सहायक है इसलिए कैल्शियम युक्त पदार्थों का सेवन अधिक करना चाहिए। संतुलित आहार, चोकरयुक्त अनाज, ताजेफल, सब्जियां, छिलके वाली दालें, लहसुन आदि हमारे शरीर की अनेक चयापचय क्रियाओं को सामान्य बनाये रखने में मदद करने और रक्तवाहिनियों को संकरी तथा कठोर होने से रोकते हैं। रात का भोजन हल्का करना चाहिए तथा सुबह टहलना चाहिए। रोगी को पर्याप्त नींद लेनी चाहिए। धूम्रपान, शराब, तम्बाकू, गांजा, चरस आदि दुव्र्यसनों को नहीं करना चाहिए। चाय, कॉफी का सेवन कम करना चाहिए क्योंकि इसमें उपस्थित टेनिन तथा कैफीन ब्लडप्रेशर को बढ़ा देती है। मांसाहारी भोजन का सेवन कम से कम करना चाहिए क्योंकि पशु वसा में ट्राईग्लिसराइड की मात्रा अधिक होती है जिससे ब्लड में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा बढ़ जाती है। मक्खन, घी आदि का सेवन अधिक नहीं करना चाहिए। गुर्दे के संक्रमण या पथरी का तुरन्त इलाज कराना चाहिए एवं नियमित ब्लडप्रेशर की जांच कराते रहना चाहिए।
आयुर्वेदिक चिकित्सा के अन्तर्गत एरण्ड तेल से विरेचन कराया जाता है। विरेचन से पित्त का निष्कासन के साथ ही वायु अनुलोमन होता है जिससे ब्लडप्रेशर में गिरावट आती है। इसके अलावा वातनाशक तेलों से शरीर का अभ्यंग कराया जाता है। वातनाशक तेलों या क्वाथ की वस्ति हाइपरटेंशन के रोगी को दी जाती है जिससे वात का शमन होता है तथा ब्लडप्रेशर में कमी आती है। शंखपुष्पी तेल की शिरोधारा अत्यन्त लाभकारी होती है। इसके साथ रक्तमोक्षण, दाहशामक उपचार और शीतल प्रदेह का उपयोग ब्लडप्रेशर की कमी में अहम भूमिका निभाता है। आयुर्वेदिक औषधियों में अश्वगन्धा, अर्जुनत्वक, लहसुन, आंवला, ब्राह्मी, जटामांसी, तगर, ऐलोवेरा, शुद्धगुग्गुल, शंखपुष्पी, वृक्षअम्ल आदि एकल औषधियां लाभकारी हैं। इसके अलावा सर्पगन्धा वटी, अश्वगन्धारिष्ट, अर्जुनारिष्ट, सारस्वतारिष्ट, योगेन्द्र रस, चन्द्रकला रस, महायोगराज गुग्गुल, चन्द्रप्रभा वटी, वृहत वात चिन्तामणि रस, अमृता गुग्गुल, गोक्षुरादि गुग्गुल आदि हाइपरटेंशन में लाभकर औषधियां हैं। कपालभाति, नाड़ीशोधन, प्राणायाम उच्चरक्तचाप में उपयोगी है। आसनों में शवासन, पवनमुक्तासन, उत्तानपादासन, सूर्यनमस्कार, चक्रासन, वज्रासन आदि हाइपरटेंशन में लाभकारी हैं। लेकिन उपरोक्त योग आसन तथा आयुर्वेदिक औषधियों का प्रयोग प्रशिक्षित आयुर्वेदिक चिकित्सक के परामर्श अनुसार तथा देखरेख में करना चाहिए। इस प्रकार आहार-विहार का ध्यान रखकर तथा आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं योगासनों की सहायता से हाइपरटेंशन या उच्च- रक्तचाप को नियन्त्रित किया जा सकता है।