परमेश्वर को वही प्रिय है जहां ईश्वर का गुणगान, श्रद्धा व प्रेमभाव है। परमेश्वर को इस बात से कोई वास्ता नहीं कि उसका भक्त गरीब या अमीर है। उन्हें तो सिर्फ प्रेम और भक्ति भाव की भूख है। गुरबाणी भी फरमाती है-

‘‘गोबिंद भाउ भगति दा भुखा’’

शास्त्रों में भी ऐसे अनेक प्रसंग आते हैं जैसे कि त्रेता युग में पारब्रह्म परमेश्वर के सरगुण अवतार श्रीरामजी ने नीच जात की गंवार गरीब भक्तिन शबरी की कुटिया में जाकर उसके द्वारा दिए गए झूठे बेर बड़े प्रेम से खाए। उसी प्रकार द्वापर युग में पारब्रह्म परमेश्वर के सरगुण अवतार श्रीकृष्ण भगवान भी अहंकारी राजा दुर्योधन के पास न जाकर गरीब दासी पुत्र भक्त बिदर के घर गए –

राजन कउनु तुमारै आवै।।
अैसो भाउ बिदर को देखिओ ओहु गरीबु मोहि भावै।।

श्री बिदर की पत्नी श्रीकृष्ण जी को घर में आया देखकर प्रेम में मग्न व बेसुध होकर केले फेंकती गई और छिलके देती गई। श्रीकृष्ण जी भी प्रेमवश स्वादिष्ट केलों को छोड़कर उनके छिलके खाने लगे।

इसी तरह एक गुरु साखी भी वर्णित है कि श्री गुरु अरजनदेव महाराज सिखों के साथ श्री तरनतारन साहिब से श्री गोविंदवाल साहिब के दर्शन करने के लिए निकले। रास्ते में तूफान आया। पास ही संपन्न पठानों का एक गांव था। गुरुजी ने सिखों को भेजकर विश्राम करने के लिए पूछा। गुरुजी के हुकुम से सिखों ने गांव में आकर पूछा पर वे दुष्कर्मी शराब के नशे में मस्त थे और कहा यहां गुरुजी के ठहरने के लिए कोई जगह नहीं है। यह बात सुनकर गुरुजी आगे चल दिए और एक टूटी हुई झोपड़ी देखकर ठहर गए जिसमें गरीब भाई हेमा भगत गुरुजी को बड़े प्रेम से याद कर रहा था। भाई हेमा का काम था फसल की कटाई होने के बाद खेतों में जाकर बचे हुए दाने इकट्ठे कर अपने हाथों से प्रतिदिन चक्की में पीसकर तीन रोटियां बनाना। एक रोटी स्वयं खाना व दो रोटियां आए-गए मुसाफिरों के लिए रखना। जिस दिन कोई नहीं आता तो रात को वही रोटियां स्वयं खा लेता था।

गुरुजी उसकी झोपड़ी के निकट आए, भाई हेमा दर्शन करके बहुत प्रसन्न व गदगद हुआ व टूटी हुई खटिया पर अपना लपेटा हुआ फटा कंबल बिछाकर गुरुजी को बिठाया और माथा टेककर चरण धोए। दोनों रोटियां लाकर गुरुजी से विनती की कि कृपया आप इसे स्वीकार करें। गुरुजी ने प्रेम देखकर दोनों रोटियां खाई और कहा बड़ी प्यास लगी है पानी ले आओ। भाई हेमा ने कहा गुरुजी पानी बहुत दूर है, अभी लेकर आता हूं। गुरुजी ने कहा पानी तो यहीं पर है आओ तुम्हें दिखाएं। गुरुजी ने झोपड़े के पास ही सूखे हुए छोटे तालाब में जहां आठ नोक वाला पत्थर पड़ा था उसे हटाने के लिए कहा, पत्थर हटाते ही वहां से इतना पानी निकला कि सारा सूखा तालाब पानी से भर गया। उस वक्त गुरुजी ने वर दिया कि यह पानी कभी नहीं सूखेगा व हमेशा आठ गुना भरा ही रहेगा और जो स्त्री यहां आकर स्नान करेगी उसे अठरां (स्त्रीरोग) की बिमारी नहीं रहेगी। प्रसन्न होकर गुरुजी ने भाई हेमा के इस प्रसंग की शिक्षा को शबद में उच्चारण कर उपदेश दिया-

भली सुहावी छापरी, जा महि गुण गाए ।।
कितही कामि न धउल हरि, जितु हरि बिसराए ।।
 
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब अंग 745)

अर्थात वही झोपड़ी अच्छी और सुंदर है जिसमें हरि परमात्मा के गुणगान गाए जाते हैं परंतु वह महल किसी भी काम का नहीं हैं जिसमें हरि परमात्मा का गुणगान न हो।

भाई हेमा का ऐसा प्रेम देखकर गुरुजी कुछ दिन वहां ठहरे। कुछ समय पश्चात भाई हेमा का अंतिम समय आ गया और शरीर छोड़कर परलोक गमन किया। गुरुजी ने अपने हाथों से उसका अंतिम संस्कार किया।

इस तरह हमारे पांचवें गुरुनानक श्री गुरु अरजनदेव महाराज ने गरीब भक्त भाई हेमा का प्रेम देखकर झोपड़ी में विश्राम करना स्वीकार कर उसका उद्धार किया।

ऐसे महान श्री गुरु ग्रंथ साहिब के रचियता श्री गुरु अरजनदेवजी की शहीदी ज्येष्ठ सुदी 4 संवत 1663 को लाहौर में हुई जहां आज गुरुद्वारा ढेहरा साहिब स्थित है। गुरुजी इस संसार में 43 वर्ष रहे। उनके शहीदी दिवस पर हमारा शत-शत नमन।

अधि. माधवदास ममतानी
संयोजक श्री कलगीधर सत्संग मंडल
जरीपटका, नागपुर-440014.

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