पंचम पातशाही श्री गुरु अरजनदेवजी के पास एक दिन लाहौर वासी भाई साईदित्ता और भाई सैदो आकर कहने लगे कि प्रथम पातशाही श्री गुरु नानकदेवजी जब लाहौर पहुंचे थे तो गुरुजी ने देखा कि वहां गौवध हो रहा है। यह देख उनसे सहन नहीं हुआ व व्यथित मन से उन्होंने लाहौर शहर को श्राप दे दिया-
‘‘लाहौर सहरु जहरु कहरु सवा पहरु’’।। (श्री गुरु ग्रंथ साहिब पृ.क्र.1412)
अर्थात् लाहौर शहर में दिन चढ़ने तक सवा पहर जहर, कहर अर्थात् झगड़े होते रहेंगे जिससे लोग आपस में कट-कटकर मरेंगे।
यह शब्द उच्चारकर गुरुजी लाहौर शहर से चले गए और गुरुजी के वचनानुसार लाहौर शहर में कहर ढहने लगा और सब आपस में लड़कर कटने-मरने लगे।
समय पाकर श्री गुरु नानक देव जी दूसरी पातशाही श्री गुरु अंगद देवजी को गुरूगद्दी देकर स्वयं सचखंड पधारे। तब श्राप से पीड़ित लाहौर वासी श्री गुरु अंगद देव के पास आकर विनंती करने लगे कि हे गुरुदेव! आप दया करें। तब श्री गुरु अंगद देव ने फरमाया कि लाहौर वासियों ने अभी भी गुरसिखी धारण नहीं की है और गुरु बाबा नानक ने उन्हें श्राप दिया है, जिसे हम नहीं हटा सकते।
भाई सैदो और सांईदित्ता गुरु अरजन देव को आगे बताते हैं कि फिर हम लाहौरवासी मिलकर तीसरी पातशाही श्री गुरु अमरदासजी के पास गोइंदवाल आए और श्राप की माफी हेतु विनंती की। उस वक्त श्री गुरु अमरदासजी की सेवा कर लाहौर वासी श्री रामदास जी ने श्री गुरु अमरदास की प्रसन्नता प्राप्त की थी। श्री गुरु रामदास की सेवा के कारण श्री गुरु अमरदासजी ने लाहौर वासियों को सिक्खी दान बख्शा और फरमाया –
‘‘लाहौर सहरु अम्रितसर सिफती दा घरु’’।। (श्री गुरु ग्रंथ साहिब पृ.क्र.1412)
श्री गुरु अमरदासजी की आशीर्वाद से लाहौर शहर, जहां पहले जहर-कहर का श्राप था वहां गुरु अमरदास की कृपा से सत्संग का प्रवाह चलने से अमृतसर, सिफती का घर बन गया है। यह प्रसंग बताकर भाई सांईदित्ता और भाई सैदो श्री गुरु अरजनदेव से विनंती करने लगे कि आप लाहौर की संगत को और भी कोई उपदेश दें।गुरुजी ने तब उन्हें उपदेश देते हुए कहा कि गुरु शबद का विचार करो, निर्गुण और सरगुण को एक रूप मानना और सतिनाम वाहिगुरु का सिमरन करते रहना। हमेशा उस परमेश्वर की शरण में रहना जिससे बड़ा और कोई नहीं है, जिसका सिमरन करने से बहुत सुख प्राप्त होंगे और कदाचित दुख-दर्द नहीं होंगे।
‘‘तिस की सरनी परु मना जिसु जेवडु अवरु न कोइ।।
जिसु सिमरत सुखु होइ घणा दुखु दरदु न मूले होइ।।’’ (श्री गुरु ग्रंथ साहिब पृ.क्र.44)
इतिहास गवाह है, हमारे सभी गुरु भी गोवध के विरुद्ध थे। श्री गुरु अरजन देव ने भी गोवध न हो इस हेतु अपनी शहीदी दी। श्री गुरु अरजन देवजी के पुत्र का नाम श्री हरगोविंद है जो आगे चलकर छठवें गुरु हुए। श्री हरगोविंद के रिश्ते की बात सदाकौर नामक युवती से मध्यस्थ व्यक्ति ने की। सदाकौर चंदुमल की सुपुत्री थी जो दिल्ली के शासक जहांगीर का वजीर था। चंदुमल बहुत ही घमंडी व्यक्ति था। उसे संतों की शक्ति व महानता का ज्ञान नही था, वह उन्हें मांगनेवाला फकीर समझता था। उसका खानदान एवं सामाजिक मान सम्मान भी उंचा था। अतः उसे यह रिश्ता पसंद नहीं था। चंदू ने गुरु घर के प्रति अपशब्द कहे, यह बात दिल्ली में चारों ओर फैल गई। अतः दिल्ली की संगत ने गुरुजी से यह रिश्ता नामंजूर करने के लिए कहा क्योंकि गुरुघर के लिए संगत के मन में अथाह प्रेम एवं सम्मान था और चन्दू की बातें उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचाती थी। अतः संगत की भावनाओं की कद्र करते हुए गुरदेव ने यह रिश्ता नामंजूर करने का निर्णय लिया।
जब मध्यस्थ व्यक्ति शगुन लेकर अमृतसर पहुंचा तो गुरुजी ने शगुन लेने से इंकार कर दिया। उस समय रिश्ता नामंजूर करना बड़ा अपमानजनक माना जाता था। चंदुमल आगबबूला हो गया। उसने गुरुजी से रिश्ता न मानने पर खतरनाक परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने के लिए कहा। गुरुजी दृढ़निश्चयी थे तथा वे संगत की भावनाओं का सम्मान करते थे परिणामतः गुरूदेव को बेहद दर्दनाक तकलीफें दी गईं। गुरूजी को खौलते हुए पानी के ड्रम में डाला गया। तत्पश्चात उन्हें जेल में बंद कर दिया और अन्न व जल की पूर्ती भी नहीं की गयी। इसके पश्चात गुरुजी को तपती रेत पर बिठाया गया पर इससे गुरुजी के निश्चय में कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्हें गर्म लोहे की चादरों पर भी बिठाया गया। इतनी यातनाएं देने के बाद भी जब गुरुजी अपने निश्चय पर अडिग रहे तब चंदुमल ने उन्हें गाय की त्वचा में लपेटने का निश्चय किया ताकि गाय की त्वचा सुखने पर भीतर ही भीतर सिकुड़कर गुरुजी की मृत्यू हो जाए। गुरुजी को ज्ञात हो गया कि उनका अंतिम समय आ गया है। उन्होंने गाय की चमड़ी में लपेटे जाने के बदले खुद का बलिदान देना ही उचित समझा। अतः गुरुजी ने चन्दुमल से कहा कि उन्होंने बहुत दिनों से नहाया नहीं हैं, वे रावी जाकर स्नान करेंगे एवं मंगनी के विषय में पुर्नविचार करेंगे। कुछ सिपाहियों व गुरुसिक्खों के साथ गुरुजी रावी नदी पर गये और आत्मिक शक्ति से अपने शरीर की इति कर दी और सिक्खों को हिदायत दी कि उनका शरीर रावी नदी में प्रवाहित किया जाये। अतः श्री गुरु अरजन देव ने गोवध न हो इस हेतु अपनी शहीदी दी।
ऐसे महान गोरक्षक गुरु श्री गुरु अरजनदेवजी महाराज का शहीदी दिवस ज्यष्ठ सुदी 4 संवत् 1663 को है, जिसकी समगणित अंगे्रजी तारीख इस वर्ष 23 मई 2023 मंगलवार को है। उनकी शहीदी दिवस पर हमारा शत-शत नमन।